पाश्चात्य साहित्य - शास्त्र | Pashchatya Sahitya - Shastra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गास्त्रीयवाद १9 पड़ेगा ।”होरेस के स्वर में स्वर मिलाकर कहते हैं:-- न .छणााटा ड फ्रणड फ्०णा डपिएप घाव एलांछिधि, २०86 फिट 90 8 800 फ्राथ्तीविडि फिफ पा, * ग्रियर्सन के भ्रनुसार दास्चीय-साहित्य एक युग-विश्ेष की रचना होती है जिसकी कुछ स्पष्ट मनोवृत्तियां श्रौर रुचि-विशेष होती है, जिसके श्राश्रय शास्त्रीय-साहित्य फलता-फुलता है । श्रनेक बार यह आरोप लगाया जाता है कि शास्त्रीय साहित्य अभिव्यक्ति-पक्ष को ही श्रघिक महत्त्व देता है, अनुभूतिपक्ष को नहीं । प्रियसन का. स्पष्टीकरण इस प्रकार है:--“'जहां तक हम अनुभव करते हैं, शास्त्रीय ' साहित्य और कला की यह अ्रनिवायं विशेषता है कि उसमें सामग्री और रूप में एक संतुलन रहता है, दोनों में ही एक उच्च स्तर की योग्यता या पुर्णता स्थापित की जाती है ।” ग्ियसंत की यह दलील नव श्ञास्त्रवादी साहित्य पर पूर्णरूपेण लायू नहीं होती । वहां रूप-पक्ष ( िणणण ) पर अधिक ध्यान दिया जाता है- यह बात हम झ्रागे स्पष्ट करेंगे । ग्रियसंन का कथन है कि शास्त्रीय साहित्य में तके श्रौर भावना का संतुलन होता है आर स्वच्छंदतावादी साहित्य में तक का विरोध होता है-- मात्र आकार के प्रति श्रास्था रखने से कविता शास्त्रीय- वादी नहीं बनती । उन के श्रनुसार शास्त्रीय-युग, चुद्धि व बविवेक ( 5०000 86056 ) का युग होता है । इसमें सामाजिक-चेतना द्वारा व्यक्ति का नियंत्रण किया जाता है-- उसके प्रत्येक गुणों का संतुलन किया जाता है । जंसा कि ब्रनेटियर कहते हैं कि एक शास्त्रीयवादी व्यक्ति तभी शास्त्रीय वनता है जब कि उसकी रचनाओं में सभी संकाय अपना अपना कार्य करते हैं--कल्पना, बुद्धि, तकें,. वर्ण्य-विषय, रूप-विधान सभी भ्रपने निद्चित आयामों में काम करते हैं 17 प्रियसंन लिखते हैं-- “उपलब्धि ही मेरे मतानुसार, जीवित, 0 न माना मर सलपाल च्पथ 1 “6 टाघिडडां 15 8 08550, 960घ्ा$6 काश पिंड कण 81 घा6 सिट्प[ए८५ किए फल ]6्फिाड चिधटणा--जाधिठपां पाधट्रीपघ्विणा 0४९1- _ 5(6छछफाछ 1८850, सा00णा 1080 कंपाफूटााठीए8 हिए6 पिास्‍ ए पावन डॉगिवि0ा ***च्ार्व स्ंघाएए फिट छिए धरा पडएएफॉफ्ट छा टाटा, सए। इ010पॉव 0लणाए् 0प्राप् 10. फि6 प्रा्धटि”,-- 116 स8ल:- &ा०णा0 0० छा पिधलिधापिट, सा. पा, (, ७50, 0. 267




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