हिंदी साहित्य पर संस्कृत साहित्य का प्रभाव | Hindi-sahitya Par Sankrit Sahitya Ka Prabhav
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12.29 MB
कुल पष्ठ :
296
श्रेणी :
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से मिले हों । दोनों दी दूशा में प्रभाव का रूप शुद्ध नददीं माना जा संकतां,
क्योंकि श्रवण में वक्ता का व्यक्तित्व भी बड़े महत्व की वस्तु है | मूल में वक्ता की
रुचि श्र शैली आ मिलने से श्रवणु-प्रभाव का रूप शुद्ध नहीं रह सकता |
इस दृष्टि से देखने पर दिन्दी के संबंध में प्रभाव के दो रूप सामने श्राते हैं :
मौलिक और परंपरागत । मौलिक प्रभाव दो श्रेणियों में रक्खा जा सकता है :
शुद्ध और मिश्र | मूल के विनियोग से जो प्रमाव हिन्दी तक श्राया है उसे
मौलिक ही कहना चाहिए, पर शुद्ध कहलाने का अधिकारी झध्ययन-संभव
प्रभाव दी होना चाहिए; मूल के श्रवण से निष्पन्न प्रभाव को तो मिश्र कहना ही
समीचीन दोगा । परंपरागत प्रभाव में परिवर्तन की सभावना श्रधघिक मिलती
है। हो, तुलसीदास और केशवदास जैसे विपश्चितों की रचनाओं पर शुद्ध
मौलिक प्रभाव के संत्रन्घ में शका करने का विशेष कारण विद्यमान नहीं है,
फिर भी यह कहने का साइस हो सकता है कि इस नित्नन्ध से सम्बन्ध रखने वाले
हिन्दी के भक्त कवियों की रचनाओं पर उपनिषदों के अतिरिक्त शेष वैदिक साहित्य
का मौलिक प्रमाव लगभग नहीं के बराबर है |
. (ख)
संस्कृत साहित्य
“संस्कृत साहित्य विषय, प्रदत्ति श्र रूप में वेदिक सादित्य से भिन्न दे ।
वैदिक सादित्य धार्मिक है श्रौर संस्कृत साहित्य लौकिक । फिर भी संस्कृत
साहित्य के पोषण का श्रेय वैदिक साहित्य को ही है । वेदों में जो बाते बीज-
रूप में मिलती हैं वे दी संस्कृत साहित्य में विस्तार पूर्वक; श्रौर कहीं कहीं
' तो विस्तार-प्रबृत्ति ने अतिशयोक्ति का मान भी प्राप्त कर लिया है। ब्राह्मण
और सूत्र अरंथों में मिलनेवाले गद्य-प्रयोग का प्राघान्य अत्र लगभग पूर्णतः
व्याकरण और दर्शन भ्रंथों में दी देखने को मिलता है; साहित्यिक गद्य केवल
कुछ कथाओं, श्राख्यायिकाओं श्र नाटकों में मिलता है, परन्तु लम्बे लम्बे
समासों के कारण उनकी शैली श्घिक रोचक प्रतीत नहीं होती । ब्राह्मणों के
साहित्य के अलावा, उत्तर के बौद्धों शौर कभी कभी जैनों ने भी संस्कृत का
प्रयोग किया था ” |
संस्कृत साहित्य की विवेचना में यहाँ हम झायुर्वेद, च्योतिष् श्रादि उपयोगी
विज्ञान सम्मिलित नददीं करेंगे, परन्तु शुद्ध साहित्य के साथ दर्शन का विवेचन
झवश्य करना हेागा, क्योंकि भारतीय साहित्य से दर्शन को अलग नहीं कर
सकते । अतः हमारे श्रव्ययन-क्षेच में दर्शन, स्मृति, पुराण, तत्र, महाकाव्य,
१--इम्पी० ग० झाफ इंडिया, 11, पृ० २३३-३४
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