नाट्य - समीक्षा | Natya Samiksha
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6.05 MB
कुल पष्ठ :
194
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about डॉ. दशन्य ओझा - Dr. Dashanya Ojha
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)रुपक के दस प्रकार हर
नाटक कहने है--'देवताना सवुध्याणा राज्ञा लोफमहान्मनामु । पृर्वयूत्तानुच सित्त
नाटक नाम तदुभवेतु । द्ाचार्यों ने उस जसगा पर यह सका उठाई दि
प्रम्यात राजा श्रपवा प्रपि सा बूल नेकर ही नाटय मी रचना होती है, सौ
'प्रचोप चन्द्रोदय' श्रादि उन नाटकों को, जिनमें युगग-दोप, धद्धानसोह, घिरपित,
उाम, घर्म, विद्या-प्रविया, चेतन्य श्रादि पदार्प पात्र बनकर आते है, सादर हो
नना किस प्रकार दी जा सबनी है *
श्रानायों ने उस याद व्य समायान फरते हुए नाटकों भय एए सो
घविभाग गौस नाटव नाम से दिया है । उनोंने श्रप्यपोपदस राजपुर्ण
जिनमें वोद्ध धर्म के सिद्धानतों सो पाथ यनाफर चुद का युरगगान किया गया ई
तथा जयन्तकत्त 'श्रागमउम्वर' वो जिपसे चौद्ध क्षपराग, पापाहिय, सीजास्दर,
नार्बाफि, सीमासया एय ताफिक श्ालाय पाथरपण से उपस्पित होएर सपनेनघपय
मत एवं श्राचार वी प्रणसा नरते है गोगग नाटक की कोटि से रखा ६ ।
उसी पकार 'सोहपराजय', 'सकल्पसूर्योद्य', 'पूरगंपुरपार्थचन्ट्रोदय चितन्यलस्धो-
दय' घ्ादि को भी गौग्ग नाटक माना है ।
सुपन्पु ने नाटा पा पॉचि प्रहार से लरसेग पिया है शौर प्रत्यप धरा
के साय-साथ नादर गी जाति वा वास नी दे दिया है । घारदातनय से सुदरय,
ना मन देते हृए लिया है दि उन्होंने घाट पी पफोच जामिया टर, प्रयास्त
नास्वर, ललित एवं समघ्लनिध्यित ही है । उन्होंने यह थी बताए है थि प्राय
जाति में उपशेप, परिफर, परिस्यास एवं पिलोसन सासय घगों सय होना समा
स्प से पाया जाता रन सुचन्पुर्नाटकस्यापि लक्षण प्राह पा । पुर्ग्य
ग्रशात च भास्यर समलित तथा ॥ समप्रमिति पिलेया नाटगे पथ जातय ॥
उपकषेप परिकर परिन्यासों, विलोभनसु । एनान्पद्वानि फार्पाणि सर्पेसादय
जातिषु ॥ भानयुरि के पयनानुसार पाँच स्पियों, चार वूततियों, पौसठ एप
एनौन ससगों सहित नाटालिकारों से सुधोशिय, प्रात सरर, उतर भायो
थे समन्वित, चमररारपरग सपना से यस्त, सकाएग्पों के साया हो सरपम्र,
'प्रमिन्दिय श्रानरणण सन्निधिए्र, सस्धिया दे टुष्लिप्ट, प्रो से दरीय, सो रे
यायय, पूदुल सर्दो से समन्पित सचना मरयी चाहिए । ऐसी दो एससा पाटइण
गम में घनिहिन दौती हैला
*पच्च. सन्पि... चनुद सिचवु पष्टपद्भरगपुतसू ।
पर्टुप्रिमरवक्षरादिनसू घ्रतपारोप दोभिएसु ॥
महारस सहाभोगमुदा्तरचनायितम् 1
सट्ापुरपस रे. साप्याचार . जनप्रिपसू
User Reviews
No Reviews | Add Yours...