सुकवि - समीक्षा | Sukvi Samiksha

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Sukvi Samiksha  by डॉ. दशन्य ओझा - Dr. Dashanya Ojhaविजयेन्द्र स्नातक - Vijayendra Snatak

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विजयेन्द्र स्नातक - Vijayendra Snatak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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॥ र < ~~ च महात्मा कबीर ७ सदुपदेश देना था, और उनका क्षेत्र भी सर्वसाधारण का समाज था। अ्रतः उन्होंने उन्हीं काव्य-विधाशओं को भ्रपनाया जो उस समय प्रचलित थी । शिक्षित न होने के कारण उनकी काव्यकला तथा भाषा में प्रांजलता नहीं ञ्राने पाई है। कविता के लिये उन्होने कविता नहीं की । हिन्दी साहित्य की भूमिका! में हजारीप्रसाद लिखते हँ- कबीर मस्त मौला थे, जो कुछ कहते साफ कहते थे । मौज में आकर जो कुछ कहते वह सनातन कवित्व का श्रृंगार होता था। वे जो कुछ कहते अनुभवों के आधार पर कहते थे । वे पढ़े-लिखे नहीं थे। कविता करना उनका लक्ष्य भी नहीं था फिर भी उनकी उक्तियों में कविता की ऊंची से ऊंची शक्ति प्राप्य है। चछन्द योजना ¢, साखी ; कबीर की रचनाग्रो मे साखियों की संख्या सबसे प्रधिक है । साखी शब्द संस्कृत साक्षी का विक्त रूप है । साखी का तात्पयं उस पुरुषसे होता है जो विवाद के निर्णय मे प्रमाणस्वरूप समभा जा सके । जब हमारे दैनिक जीवन में कभी-कभी नैतिक, आध्यात्मिक अथवा व्यावहारिक उलभनें ग्राती हैं और भ्रम व सन्देह को दूर करने के लिए, हमें ज्ञान के आ्रालोक की आवश्यकता पड़ती है तब ये साखियां हमें सच्चा मार्ग सुभा सकती हैं। कबीर बीजक में इसका महत्व दर्शाते हुए कहते हैं -- साली भ्रांखी ज्ञान को, समुर देव॒ मन माहि, बिन साखी संसारका, कगरा छृटत नांहिः साखी की रचना प्रायः दोहो में हुई हो, एेसा नहीं है । साखी दोहे से भिन छन्दो में भी लिखी जा सक्तो है । २, पद या सबद : कबीर की रचनाभ्रो में दूसरा काव्य प्रकार, जो बहुत प्रसिद्ध है 'पर्द! अथवा, 'सबद है । कहीं-कहीं पर इसे बानी भी कहा गया है। ये पद श्रथवा सबद गेय होते हैं और प्राय: इन्हें भजनों में सम्मिलित करते हैं । ये प्रधानतः आ्रात्मज्ञान अथवा भक्ति भाव के कारण उमंग आ जाने पर ही रचे गये होंगे, भौर इस कारण से इनमें गेयत्व का गुण ग्रा गया है। भ्राकार के विचार से ये छोटे भ्रौर बड़े दोनों प्रकार के हो सकते हैं । २. रमेनी ‡ रामायण शब्द का क्रमशः रमेन, रम॑नी बन जाना स्वाभाविक है। रमेनियों की रचना दोहे-चौपाई में की गई पाई जाती है ग्रौर इनका विषय प्रधानतः वर्ण- नात्मक है । ४, बावनी : बावनी नामक काव्य-प्रकार कौ विदोषता यह्‌ हँ कि इसकी रचना हिन्दी की वर्णमाला के अ्रक्षरों को ध्यान में रखते हुए की गई है। हिन्दी वणंमाला में १६ स्वर ३५ व्यंजन तथा ऊ मिला कर कुल ५२ श्रक्षर माने जाते हैं। कबीर ने स्वयं कहा है :--- बावन भ्राखर जोरे प्रांनि, एको সাং অহমা ল জালি, दूसरे भ्राखर से 'अक्षर' ब्रह्म का तात्पये है। ५. चोंतीसा / इस चौंतीसा में हिन्दी के स्वरों तथा ऊ का परित्याग कर दिया है




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