धर्म्मपद अथवा महात्मा बुद्ध प्रणीत नीतिबोध | Dharmpad Athva Mahatma Budh Praneet Nitibodh

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Dharmpad Athva Mahatma Budh Praneet Nitibodh by रामचंद्र रघुनाथ - Ramchandra Raghunath

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(७) कल १७ उद्यानमें विचार-निमग्न वेठे थे । आकाशमें श्वेत रड्के हंसोंकी पक जमात उड़ती हुई एक ओर को जा रही थी । इसी समय किसी का बाण लगने से उसमें का एक ह'स दुःख से विहुल होकर घरती पर गौतमके सामनेही गिर पड़ा । उसका शसीर रक्तमय हो गया था | गीतमने उस हंस को उठा दिया और पासदी के हौज़से पानी लेकर उसका सारा शरीर घोकर स्वच्छ किया और उसके आाघातों में सावधानी से प़याँ चाँघ दों । इसी समय उसका चचेरा 'भाई देवदत्त वहाँ था पहुँचा और गौतम से बोला, 'भाई साहव इस पश्चीको मैंने मारा है, यह मेरा शिकार है। इसलिए मैं इसका स्वामी हूं। छृपाकर आप इसे - छोड़ दीजिए ।' सिद्धार्थ ने उस पश्ची को देने से इन्कार किया । फिर क्या था ? दोनेंमें लड़ाई छिड़ गई। बात यहाँ तक पहुँच गई कि वे दोनों आपसमें कुछ भी निर्णय न कर सके और उन्हें आपस का कगड़ा तय करने के लिए व्यायाघीश के यहाँ ज्ञाना पड़ा । न्यायाघीश ने दोनों राजपुत्रों की बातों को ध्यान- पूर्वक श्रचण कर यह निर्णय किया कि जिसने उस पश्षीकी रक्षा की है और जो उसके घावोंको ठीक कर उसे जीव-दान देगा वही उसका स्वामी है। और उसीका उसपर विशेष स्वत्त्व है।. एक दिन राजाज्ञा लेकर सिद्धार्थ नगर में घूमने के लिए -निकले। रास्ते में किसी बूढ़े भिखारी को देखकर उनके मन में उदासी छा गई। मनुष्य की शद्धावस्था कितनी दुमखमय है यदद सोचकर आपकी उदासी और भी बढ़ गई । आगे चल




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