ये वे बहुतेरे | 1072 Yeh Ve Bahu Tere

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अचल कर, मैने श्रपने थके, सुस्त शरीर को चैतन्य किया । किस-किस कमर मे दूध दिया जाता था; यह सब मैं जानती थी । वहाँ जा-जाकर मैंने दूध दिया । कुछ बाबू लोग श्रपने कमरों में थे श्र कुछ नहीं थे। नौकरों ने दूध ले लिया । उनकी निगाद्दो का श्रथ जानती थी, परन्तु अरब तो मुभे तुम्हारी दी वदद दृष्टि चुभती थी। केवल तुम्हारी ही आँखों की वासना मै वरदाश्त कर सकती थी । केवल तुम्ददी को झब मैं श्रपना तन दे सकती थी । तन देने की ज़रूरत नारी के जीवन में झ्राती ही है । कदाचित्‌ यही उसका स८कर्म श्रौर धर्म है। समाज में यही उसकी उपयोगिता है । तुम्हारे देव-दुलभ मोहन स्वरूप का भेरें ऊपर यही प्रभाव पड़ा था | अब तन का देना मेरे लिए एक कौतूहल, एक रज्ीन विनोद श्रौर एक शुड़िया वहलाने का सा साधन नही था बल्कि जीवन का एक परिष्कार था | श्रचंना का सस्कार था | श्र तो मेरे तन श्र मन में, मन के एक-एक तार में तन के एक एक श्रड्ड में, एक साथ आग लगती थी | तन की राग छुकाने वाले तो मुक्त चारों ओर मिल्तते थे । शरीर की भूख तो उठती-उठती नारी' श्रड्ध को ही भस्म कर देना चाहती थी, परन्तु यद्द मन की श्राग तो दिल श्रौर दिमाग पर सन्निपात के विकार की तरह व्याप्त होती रहती थी | यद्द भी सच है कि शरीर की भूख तब मेरी दब-सी चली थी । तुम्हारी मुति का ध्यान श्राते ही तब मुझ; यह प्रतीत होता था जैसे मैं कुछ ऊपर उठ रही हूँ । मेरा मस्तक ऊँचा उठता जा रददा है। जैसे मैं एक साधारण शझ्रद्दीर की लड़की न होकर एक सम्भ्रान्त कुल को नारी श्शू




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