ये वे बहुतेरे | 1072 Yeh Ve Bahu Tere
श्रेणी : कहानियाँ / Stories
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3.25 MB
कुल पष्ठ :
142
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अचल
कर, मैने श्रपने थके, सुस्त शरीर को चैतन्य किया । किस-किस कमर
मे दूध दिया जाता था; यह सब मैं जानती थी । वहाँ जा-जाकर मैंने
दूध दिया । कुछ बाबू लोग श्रपने कमरों में थे श्र कुछ नहीं थे।
नौकरों ने दूध ले लिया । उनकी निगाद्दो का श्रथ जानती थी, परन्तु
अरब तो मुभे तुम्हारी दी वदद दृष्टि चुभती थी। केवल तुम्हारी ही
आँखों की वासना मै वरदाश्त कर सकती थी । केवल तुम्ददी को झब
मैं श्रपना तन दे सकती थी । तन देने की ज़रूरत नारी के जीवन में
झ्राती ही है । कदाचित् यही उसका स८कर्म श्रौर धर्म है। समाज में
यही उसकी उपयोगिता है । तुम्हारे देव-दुलभ मोहन स्वरूप का भेरें
ऊपर यही प्रभाव पड़ा था | अब तन का देना मेरे लिए एक कौतूहल,
एक रज्ीन विनोद श्रौर एक शुड़िया वहलाने का सा साधन नही था
बल्कि जीवन का एक परिष्कार था | श्रचंना का सस्कार था |
श्र तो मेरे तन श्र मन में, मन के एक-एक तार में तन के एक
एक श्रड्ड में, एक साथ आग लगती थी | तन की राग छुकाने वाले
तो मुक्त चारों ओर मिल्तते थे । शरीर की भूख तो उठती-उठती नारी'
श्रड्ध को ही भस्म कर देना चाहती थी, परन्तु यद्द मन की श्राग तो
दिल श्रौर दिमाग पर सन्निपात के विकार की तरह व्याप्त होती रहती
थी | यद्द भी सच है कि शरीर की भूख तब मेरी दब-सी चली थी ।
तुम्हारी मुति का ध्यान श्राते ही तब मुझ; यह प्रतीत होता था जैसे मैं
कुछ ऊपर उठ रही हूँ । मेरा मस्तक ऊँचा उठता जा रददा है। जैसे मैं
एक साधारण शझ्रद्दीर की लड़की न होकर एक सम्भ्रान्त कुल को नारी
श्शू
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