जैन - दर्शन | Jain - Darshan

Jain - Darshan by लालारामजी शास्त्री - Lalaramji Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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समान्नाय”” इस व्याकरण के सूत्र से भी अकारादि वणंसमूद अनादि सिद्ध होता है । तथा इस णमोकार मंत्र के बराच्य परमेष्ठो, झनादि हैं तो उनका बाचक यह खणमोकार मंत्र भी शअनादि हो सिद्ध होता है । इसके सिवाय यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि संस्कृंत सित्य-लियम की पूजा के प्रारम्भ में ही णमोकार मंत्र का पाठ पढ़ा जाता है और फिर “<£ अनादिमूलमंत्रे्यो नमः” यह पढ़कर पुष्पांजलि का क्षेपण॒ किया जाता है । तदनंतर ' एसो पच णमोयारो” आदि पाठ से णमोकार मंत्र का महत्त्व प्रगट किया जाता है । इससे णमोकार मंत्र अनादि सिद्ध होता है। यह णमो कार मंत्र और इसकी पूजा भक्ति श्रद्धा झादि भी मोचप्रद है, ऐसा सिद्ध होता है । इसोलिये यह मानना पढ़ता है कि इसकी श्रद्धा भी : सम्यग्दश॑न स्वरूप ही है, इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है । . दूसरी बात यह है कि संग्कृत का व्याकरण अपरिवतनशील है ' और उसके अपरिवत्तेतशील होने से तज्जन्य प्राक़ृत भाषा भी 'अपरिवित्तेनशील है । इस सिद्धान्त के अनुसार अनादि काली न पंच परमेष्ठी का वाचक णमोकार मंत्र भी डानादि है, इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है । जेनवर्शन नस्ल अमनमणि अब पंच परमेष्टी का श्रद्धा करना सम्यग्दशन कहलाता हे-जेसाकि ऊपर बता चुक हू तो इस णमोकार सत्र में ्त्यत अनुराग रखना भी सम्यग्दशन का चिन्ह या . लक्षण है । यही कारण हे. कि समाधिमरण के समय अन्त कालमें जबकि इन्द्रियां : शिथिल होकर कुछ काम नहीं करती-कंठ थी रुक जाता है उप्त




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