नागरीप्रचारिणी पत्रिका Bhag - 19 | Nagaripracharini Patrika Vol. 19

Nagaripracharini Patrika  Vol. 19  by श्यामसुंदर दास - Shyam Sundar Das

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रो गणेश थ महायान बोाद्ध संप्रदाय श्रौर तंत्रों में भी गणेंश-पूजन के विविध प्रकार श्ार क्रिया-कलाप मिलते हैं?, श्ौर हठ-याग में शरीर के भीतर जो श्रनेक चक्कों की कट्पना की गई हो, उसमें मूलाधार (गुदा) चक्र के देवता गयणश हर । संभवत: इसी कटह्पना का लेकर उच्छ्िष्ट विनायक की उपासना चली, जिसमें यद्द विधान है कि साधक जूठे मुंह शोचालय में मंत्र सिद्ध करेरे । शिव-परिवार में गणेश की गणना का मुख्य कारण यहीं जान पड़ता है कि क्र श्रीार झप-देवता तथा देवयानि के अन्य सत्त्व जेसे यक् राच्स, वेताल, भूत-प्रेतादि शिव के गण श्रीर परिकरों में हैं; झोार शिव ही उनके मुख्य अधिष्ठाता हूं । फलत: विघ्न-देवता विनायक भी उनके ज्येष्ठ पुत्र माने गए । इसी प्रकार उनके अनुज क्वार्चिकेय, जो पीछे से देवताओं के सेना-नायक हो जाते हैं, आरंभ में, बालकों के एक दुष्ट-प्रह हैं । गणेश का घोर रूप परिवत्तित होकर सौम्य रूप हो जाना स्वेधा हिंदू-घर्म की मनेावृत्ति के अनुकूल है। वैदिक रुद्र से शिव हो जाने में श्राौर बाल-धह् स्कंद से सेनानी हो जाने में भी यहीं प्रक्रिया पाई जाती है । अपने यहाँ ऐसे श्रौर भी उदाहरण मिलेंगे जहाँ देवताओं का उमर रूप क्रमश: साच्विक हा गया है । अब तक गणेश की जो सबसे प्राचीन मूर्ति मिली है, वह भूमरा ( नागाद राज्य, मध्यभारत ) की है* । यद्द मूत्ति द्विभुज है। जावा के हिंदू-मंदिरों में भी गगोश की सुंदर प्रतिमाएँ मिली हैं*. । गणेश की प्रतिमाओं में एकदंत हाथी का मुंह, लंबा ह- मम: सिलनारा श्--गणेश', ट० ३७-४४ ।. तन्त्रसार; पुरश्चयासव- प्रभाकर प्रिंटिंग बक्‍्स, काशी र--किल्याण” यागांक, ० ३६० के सामने वाला चित्र नें० २ तथा शक्ति-ंक पु० अ ५३०४ | ३न-भांडारकर, वैश्नविज़्म प्ृ० २१३, पै० ११२ । ४ गणेश”, प्लेट ३ बी। ५--'गणुश', प्लेट ३० ए तथा सी; प्लेट ३१ए, बी तथा डी |




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