नागरीप्रचारिणी पत्रिका Bhag - 14 | Nagaripracharini Patrika Vol. 14

Nagaripracharini Patrika  Vol. 14  by श्यामसुंदर दास - Shyam Sundar Das

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सीता का शील-संदभ भर मत्यलेक में अवतीण नारी दी समभते हैं, देवी नहीं । देवी का चरित्र हमारी आलाचना का विषय नहीं हो सकता, वह हमारे कौातुक का विषय हो सकता हैं । सीता के हम देवी का गोरवपू्ण पद देते हैं, लेकिन शलाकिकता के लिये नहीं ।. मानवी नारी भी विशिष्ट गण के कारण देवी कहलाती हैं । साध्वी सीता एक ऐसी ही देवी हैं। पवन सानवता का पुर्ण व्यंजक नहीं हो सकता | सानवता स्वयं ही सहत है। इसमें देवव्व की -तिष्ठा करने से इसका रावनाश ही हो जाता है । सीता यदि मानवी होकर देवी का दिव्य पद प्राप्र करती है ते उनके लिये हमारे हृदय में पयाप श्रद्धा श्रोर भक्ति है; लेकिन यदि सीता देवी ही हैं तो वे हमसे बहुत दूर जाकर एक विचित्र विडंबना की रस्तु बन जाती हैं । उनके सख-दाख के संश्रव की देखकर हमारे हृदय में जा भावनाएँ जृत्पन्न हेगी, वे निराघार सी प्रतीत होंगी । एक अतुल शक्ति- संपन्न देवी-को काइ थी साधारण रामप्य सहायता नहीं दे सकता | यह मानते है कि सानवी संता वा भी हस किसी प्रकार की स्थूल सहायता नहीं दे सकते; परंतु उनकी करुणा-पूण स्थिति में हमारी अनुकंपा भावनास्मक्त सहायता का रूप यहग करती है। सीतम- न्याय-सच के मे रसंदर्शिरि के अज्ुसार ऊन हमारे हदय में रुण्य-बुत्ति जागरित होती है घोर हमको उससे दुख होता हैं. तब उस दु:ख को दूर करने के लिये हम अन्य लागों पर दया अर उपकार किया करते है। पुण्यार्मा सीता के प्रति हमार उपकार कर यही स्वरूप है । में झपनेपन का स्वाथ रहता है सभी करुणा भी आती है, अन्यथा नहीं । इसमें संदेह नहीं कि इस अपनेपन का विश्व विराट है, संकुचित नहीं । सीता का प्रथम दर्शन जनकपुर में ही. उसके स्वयंवर के समय होता हैं। सीता के शील का वर्णन ते हम आगे करेंगे, श्भी हें (भू 1




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