नागरीप्रचारिणी पत्रिका Bhag - 14 | Nagaripracharini Patrika Vol. 14
श्रेणी : इतिहास / History, पत्रिका / Magazine
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
39.98 MB
कुल पष्ठ :
582
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सीता का शील-संदभ भर
मत्यलेक में अवतीण नारी दी समभते हैं, देवी नहीं । देवी का
चरित्र हमारी आलाचना का विषय नहीं हो सकता, वह हमारे कौातुक
का विषय हो सकता हैं । सीता के हम देवी का गोरवपू्ण पद
देते हैं, लेकिन शलाकिकता के लिये नहीं ।. मानवी नारी भी
विशिष्ट गण के कारण देवी कहलाती हैं । साध्वी सीता एक ऐसी
ही देवी हैं। पवन सानवता का पुर्ण व्यंजक नहीं हो सकता |
सानवता स्वयं ही सहत है। इसमें देवव्व की -तिष्ठा करने से
इसका रावनाश ही हो जाता है । सीता यदि मानवी होकर देवी
का दिव्य पद प्राप्र करती है ते उनके लिये हमारे हृदय में पयाप
श्रद्धा श्रोर भक्ति है; लेकिन यदि सीता देवी ही हैं तो वे हमसे
बहुत दूर जाकर एक विचित्र विडंबना की रस्तु बन जाती हैं ।
उनके सख-दाख के संश्रव की देखकर हमारे हृदय में जा भावनाएँ
जृत्पन्न हेगी, वे निराघार सी प्रतीत होंगी । एक अतुल शक्ति-
संपन्न देवी-को काइ थी साधारण रामप्य सहायता नहीं दे सकता |
यह मानते है कि सानवी संता वा भी हस किसी प्रकार की स्थूल
सहायता नहीं दे सकते; परंतु उनकी करुणा-पूण स्थिति में हमारी
अनुकंपा भावनास्मक्त सहायता का रूप यहग करती है। सीतम-
न्याय-सच के मे रसंदर्शिरि के अज्ुसार ऊन हमारे हदय में
रुण्य-बुत्ति जागरित होती है घोर हमको उससे दुख होता हैं.
तब उस दु:ख को दूर करने के लिये हम अन्य लागों पर दया अर
उपकार किया करते है। पुण्यार्मा सीता के प्रति हमार उपकार कर
यही स्वरूप है । में झपनेपन का स्वाथ रहता है सभी करुणा
भी आती है, अन्यथा नहीं । इसमें संदेह नहीं कि इस अपनेपन
का विश्व विराट है, संकुचित नहीं ।
सीता का प्रथम दर्शन जनकपुर में ही. उसके स्वयंवर के समय
होता हैं। सीता के शील का वर्णन ते हम आगे करेंगे, श्भी
हें (भू 1
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