दैत्य वंश | Daitya Vansh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२. यहि लागि तुम सों कहत नातों बन्धु को निरबाहियें । करुना-यतन कौ सुवन-हिय. येतो कठोर न चाहिये । गुरु-्रात ही. के गात पँ कंसे प्रहारों सायक । यहि लागि तुम सौं मंत्र बुूफत वीर सीस नवायक॑ ।। इसका उत्तर षड्मख इस प्रकार देते है-- षटमुख कह्मों करों का भाई। है कतंब्य अमित दुखदाई ॥। हूं के देव चमूचय नायक । क्यों तिनकौ नहिं बनौ सहायक ॥। चकवा-चकई के वियोग का कथन इंद्र के मनोभावों के अनूकूल ही हुआ है। प्रकृति के इस स्वच्छंद वायुमण्डल में इंद्र ने मातु-तिया-सुत-देस को चिन्ता में न जाने कितनी रातें रो-रोकर बिताई होंगी । अंत को उसे मरालों की एक जोड़ी मिल जाती है जिससे हृदय को कुछ ढाढ़स बँधता हूं। उन्हीं के द्वारा कालिदास के मेघदूत और नेषध के हंसदूत की तरह. वह अपना विरह-संदेश अमरावती को भेजता हैं। देत्यवंश-महाकाव्य के कवि की एस कथा के प्रसंग में यह मौलिक कह्पना है । यह अवश्य हैं कि देत्यों के आख्यान में इससे किचित्‌ व्याघात पड़ता है पर इस हंस-संदेश का सौन्दर्य कथा में . अवांतर उपस्थित करते हुए भी पाठक को मोह लेता है। इन्द्र के संदेश में उसकी वियोग-व्यथा का रुदन नहीं अपितु पत्नी के लिए ढाढ़स भौर आश्वासन के वचन है । पुरुषत्व की प्रतिष्ठा के लिए यह उचित ही है कि उसकी वियोग- व्यथा दब्दों में व्यवत न होकर ऐसे कार्यों में व्यंजित हो जो स्त्री के लिए सांत्वना-प्रद हों । इन्द्र कहता है-- तेरे ही पुन्नि प्रभावनि सौ कुसली अबलों सुनी बालम तेरे । पायौ संदेसौ नहीं तुम्हरौ नित याही अँदेसनि सौं रहें घेरे | धीरज धारौ हिये में तिया . आ निरासहि आवन दीजै न नेरे। एक न एक दिना सुमुखी .... सुख के कबहूँ दिन आइहैं मेरे । . भूलिके आप कहूँ जननी-- ग ... समूहे जनि लोचन बारि. बहुँयी।




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