कबीर और जायसी का रहस्यवाद तुलनात्मक विवेचन | Kabir Aur Jayasi Ka Rahasyavaad Tulnatmak Vivechan

Book Image : कबीर और जायसी का रहस्यवाद तुलनात्मक विवेचन  - Kabir Aur Jayasi Ka Rahasyavaad Tulnatmak Vivechan

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about गोविन्द त्रिगुणायत - Govind Trigunayat

Add Infomation AboutGovind Trigunayat

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
४ श्रयात्‌ विद्या दो प्रकार की होती है--एक श्रपरा शीर दूसरी परा। भपरा विद्या के भ्रन्तगंत चारो वेद भ्ौर छहो वेदाग गिनाए गए है ब्रह्मविद्या को परा विद्या कहा गया है। इस परा विद्या का प्रेरक जव तक होता है तब उसे भ्रध्यात्म ज्ञान की सज्ञा दी जाती है । श्रौर जब उसकी मूल प्रेरिका भावना होती है तब उसे श्रध्यात्म की अनुभूति कहेंगे । उपनिषदों में ब्रह्मानुभूति में तक॑ की श्रप्नतिष्ठा मानी गई है। कठोपनिषद्‌ में स्पष्ट लिखा है -- नेवा मति तकेशापनीया । श्रव प्रदत है फिर उसकी श्रनृभूति या ज्ञान कसे प्राप्त हो । इस पर में लिसा है-- 1 नः नरेखावरेख प्रोक्त एव सुचिश्ञयो बहुघा चिन्त्यमान. । झनन्य प्रोफ्तेगतिरत्र नास्ति प्रमाणात्‌ ॥ कई प्रकार से विवेचित झात्मा नीच पुरुष हरा उपदिष्ट होने पर वोधगम्य नहीं हो सकता श्रमेददर्शी श्राचार्य द्वारा उपदेश किये जाने पर भ्रात्मा भ्रस्ति-नास्ति रूप श्रनुभव होता है। यह श्रात्मा सूक्ष्म परिणाम वालो से भी सूक्ष्म भौर दुविज्ञेय है। इस उद्धरण में दृष्टा ने श्रात्म-ज्ञान के उपदेश के योग गुरु का सकेत किया है । वास्तव में भ्रमेददर्शी गुरु ही ब्रह्म ज्ञान देते का प्रधिकारी कहा जा सकता है । छान्दौग्योपनिषद्‌ में भी ब्रह्मा विद्या की प्राप्ति एक-मात्र गुरु से ही मानी गई है । सत्पकाम श्रपने गुरु से कहता है-- शत हब में भगवद्दुश्नेम्यः झाचार्याद्येव विद्या विदिता साधिष्ठ प्राप्त्यतीति । इस




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now