रस - सिद्धान्त | Ras Siddhant

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Ras Siddhant by डॉ. नगेन्द्र - Dr.Nagendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(ख) रस-सम्प्रदाय का इतिवृत्त रस-सिद्धान्त का प्रतिपादक प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ नाट्यशास्त्र है जो भरत मुनि की रचना के रूप में प्रसिद्ध है । इसमें नाटक के संदर्भ में रस के अंग-उपांगों का पर्याप्त विस्तार से विवेचन किया गया है । विशेषज्ञ विद्वानों का मत है कि अपने वर्तमान समग्र रूप में नाट्यशास्त्र ईसा की छठी शती से पु की रचना नहीं हो सकता--साथ ही इसके बहुत बाद की भी रचना यह नहीं है क्योंकि नाट्यशास्त्र के जिस संस्करण पर परम- माहेइवर अभिनवगुप्त ने आठवीं-नवीं झती में अपनी प्रसिद्ध टीका अभिनवभारती लिखी है, वह प्रस्तुत संस्करण से प्राय: अभिन्न ही है । किन्तु यह तो हुई नाट्यशास्त्र के वर्तमान संस्करण की वात ! जो विद्वान्‌ इसे छठी शत्ती के आस-पास की कृति मानते हैं, वे प्राय: यह भी स्वीकार करते हैं कि इस नाट्यशास्त्र का आधारभूत एक लघुतर संस्करण भी प्रारम्भ में था--भाज मूल और उसके विस्तार में भेद करना सरल नहीं है, परन्तु उसके चिह्न मिल ही जाते हैं। यह भरत की रचना थी और कदाचित्‌ सुत्र-रूप में -थी--कालिदास इसी रूप से परिचित थे । अत: इसकी रचना का समय ई०पू० दूसरी शती से ईसा की दूसरी शती तक माना जा सकता है । इस लघुतर संस्करण में प्राय: समस्त मौलिक नाट्यांगों का विवेचन था--रस-प्रसंग की विवेच्य वस्तु और शैली” दोनों के ही आधार पर यह धारणा दृढ़ हो जाती है कि रस का भी अन्तर्भाव निश्चय ही इसमें था । निष्क्प यह है कि रस-सिद्धान्त का विस्तृत शास्त्रीय विवेचन मूल भरत-सूत्रों में ईसा के जन्म के एक-दो दझाती इधर या उधर निद्चित रूप से हो चुका था । इससे पहले का कोई विवेचन उपलब्ध नहीं है । किन्तु प्रश्न उपलब्धि का ही है; अस्तित्व का नहीं है । भरत से पूर्व रस-सिद्धान्त का आविर्भाव हो चुका था, इसमें भी सन्देहू नहीं किया जा सकता । एक तो भरत-सूत्रों (सूलसुत्रों का भी) का रस-प्रतिपादन इतना सांगोपांग और पूर्ण है कि उसके पीछे एक विस्तृत विचार-परम्परा की कल्पना अनिवायें है, दूसरे नाट्यशास्त्र में सवंत्र उद्धत आनुवंश्य इलोक अपने आप में इस वात का अकाट्य प्रमाण हैं कि भरत से पूर्व शिष्य-प्रद्िष्य-परम्परा के माध्यम से रस-सिद्धान्त काफ़ी पहले से ही चला आ रहा था । अभिनवगुप्त के साक्ष्य के अनुसार पुर्वाचार्यों ने लक्षण रूप में इनका कथन किया था और भरत ने परम्परा से प्राप्त कर इन्हें, अपने विवेचन को पुष्ट करने के लिए: यथास्थान निवेशित कर दिया है : ता एतां ह्यार्या एकप्रघट्रकतया पुर्वाचार्येलंक्षणत्वेन पठिता: । सुनिना तु सुखसंग्रहाय यथास्थानं निवेशिता: । अभिनवभारती अ० ६ दर राजशेखर के प्रसिद्ध उद्धरण में भी भरत के अतिरिक्त नन्दिकेशवर का उल्लेख है । उसके अनुसार भरत ने मुख्यतया रूपक का निरूपण किया और नन्दिकेद्वर ने रस का-- भर्थात्‌ भरत की अपेक्षा नन्दिकेदवर का रस-सिद्धान्त से घनिष्ठत्तर सम्बन्व था 1 १. वृस्तुतः सून्न-शंली का प्रयोग इसी प्रसंग में सवोधिक सष्ट है. |




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