कौमुदी | Kaumudi

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Kaumudi by डॉ रामकुमार वर्मा - Dr. Ramkumar Varma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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.डॉ० वर्मा के व्यक्तित्व के विभिन्न आयाम १५ दृष्टि से देखा जा सकता है । इनमें उक्त काल के छायावादी गीत ही अपनी पूर्ण स्पर्शशीठता तथा सौन्दयंबोध से संग्रहीत हैं । इस नये सम्पर्क तथा वातावरण का वर्मा जी की काव्य चेतना पर इतना गहरा और अटूट प्रभाव पड़ा, जिससे उनकी कविता की धारा ही दूसरी दिशा में प्रवहमान हो गई और अपने काव्य सौष्ठव और सौन्दर्य बोध तथा गीति कला के कारण वर्मा जी छायावादी कवियों की प्रथम श्रेणी में परिगणित हो गए । प्रसाद, निराला पंत, महादेवी के साथ छायावाद के इतिहास में वर्मा जी भी महत्वपूर्ण हस्ताक्षर बन गए और . . छायावादी काव्य के प्रतिनिधि कवि के रूप में स्वीकृत हुए । इस प्रकार प्रयाग का वातावरण और सम्पर्क उनके जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। आचरण तथा व्यवहार--आचरण की दृष्टि से वर्माजी पूर्णतया एक धर्मावलम्परी व्यक्ति प्रतीत होते हैं । खूब सुबह उठना, पुजा करना, फिर अध्ययन आरम्भ करना, विद्यार्थियों को शिक्षा संबंधी निददा करना, विद्वविद्यालय जाना और रात्रि में पुन: ईरवर का स्मरण कर सोना निद्चय ही, एक ईर्वरनिष्ठ व्यक्तित्व के परिचायक हैं । वर्मा जी परम्परावादी आस्तिक व्यक्ति की तरह मंत्र आदि में भी विश्वास रखते हैं और इसका स्पष्ट प्रमाण है कि अभी भी उनकी बाँह पर जंतर बंधा है। (यह तत्त्व सांस्कारिक ही मानना चाहिए। ) उनका यह आस्था-- परक आचरण उनक साहित्य में भी प्रकट है । वे अपने साहित्य में सबेशक्तिमान सत्ता की अवहेलना नहीं करते । “शिवाजी” आदि छृतियों में यह स्वर स्पष्ट रूप से सुना जा सकता है। उपर्युक्त मनःस्थिति के अनुकूल ही वे अपने से बड़े जनों को प्रणाम करते हैं , अपने प्राचीन गौरवश्याली पुरुषों के प्रति श्रद्धा निवेदित करते हैं और अपने से छोटों पर अत्यन्त स्नेह से आशीर्वाद की पुष्प वर्षा करते. हैं । वें भारतीय आस्थाशील आचरण के अनकल शभ कामना- _ परक मनोवृत्ति रखते हैं । इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि वे रूढ़ियों से ग्रस्त अप्रगतिशील विष्वासों के व्यक्ति हैं । वास्तविक रूप में देखा जाए तो उसमें प्राचीन और नवीन का अत्यन्त सफल समन्वय है । एक ओर फुलपन्ट कोट पहनना और दूसरी ओर आस्थावान भक्त हृदय की तरह ईइ्वर की उपासना से ही मात्र उनका यह समन्वययक्त आचरण प्रकट नहीं होता प्रत्युत्‌ इनक साहित्य द्वारा भी यह प्रतिपादित होता हैं । एक ओर वे जातीयता का विरोध करते हैं, छुआछूत का विरोध करते हैं (“एकलव्य” इसका उदाहरण है) वहाँ दूसरी ओर भारतीय गुरु-शिष्य के परम्परागत पावन स्नेहशीछ संबंधों का समादर करते हैं (“एकलव्य” देखें ) । एक ओर जहाँ नर व नारियों में शौय॑ की आकांक्षा करते हैं, उनके उदात्त आचरण का यद्यणान करते (' चित्तौड़ की चिता” देखें) वहीं वे संगछपर्ण आदर्श का भी प्रतिष्ठान करते हैं । वे कुछ ललना” में नग्नतायुक्त फैशानपरस्ती के समर्थक नहीं हैं, परन्तु तेज और प्रगतिशील विचारों के प्रतिपादक हैं । वे प्राचीनता से, परम्परा से गणों को ग्रहण करने के आकांक्षी हैं और आधुनिक प्रगतिशील विचारों से जीवन का अलंकरण भी चाहते हैं । इस प्रकार वे प्राचीनता और आधुनिकता के गुणों की स्वीकृति देते हैं, अगतिशीछता और रूदियों को नहीं । वे दोनों के मांगलिक तत्त्वों के समन्वय से मानवता का श्पूंगार करना चाहते हैं । अतएव उनका आचरण और साहित्य भी मानवतावादी धरातल पर अवस्थित है। वे अहम से कुंठित मनुष्य की तरह आचरण न करते हुए, ऊर्ध्वमुखी चेतनानप्राणित आचरण का निर्वाह करते हैं। वे मात्र प्राचीनता के नाम पर प्राचीन के सभी गुणों की उपेक्षा नहीं करते, न आध- निकता की अनास्था और दुर्गुणों को (अर्थात्‌ आधुनिकता के जो दोष हैं ) अपनाते हैं । इस




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