भिकारिणी | Bhikharini

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Bhikharini by विश्वम्भरनाथ शर्मा - Vishvambharnath Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ | भिखारिणी . का प्रबन्ध कर दें, कहीं कोई कोठरी रहने को दे दें । ऐसा हो जाय तो बड़ा. अच्छा है। यह बात. लड़की की . समझ में आ गई । उसने सोचा--“बात तो ठीक है। पर मैं कहुँगी तो वह कुछ-न-कुछ जरूर करेंगे ।' इस विचार के साथ ही साथ बाद साहब से स्वतन्त्रतापुवंक खुलकर बातचीत करने का सुअवसर प्राप्त होने के.विचार ने कन्या के हृदय में गुदगुदी पैदा कर दी . .... भिक्षुक ने कन्या का मौन देखकर कहा--मैंने कैसी अच्छी बात सोची ।. बस, अब तू वहाँ जा । कन्या--तो अभी तो बड़ा सबेरा है; जरा दिन चढ़े तब जाऊंगी । .. भिक्षक-हाँ-हाँ, जरा और ठहर जा । कर व कन्या नित्यक्रिया से हुई । इसके पश्चात उसने पानी का एक लोटा भर के पिता के पास रख दिया । इतनि समय में काफी दिन चढ़ गया था, अतएव भिक्षुक ने उससे कहा--अब जाओ, दिन बहुत चढ़े आया,। कन्या चली । उसके हृदय में इस समय अनेक प्रकार की भावनाओं का संघषंण हो रहा था । बाबू साहेब से बातचीत करने की उत्सुकता इसके साथ ही एक प्रकार की झिझक तथा संकोच उसके हृदय में एक विचित्र तुफान मचाये हुए थे । वह सोचती थी--'मैं उनसे क्या .कहुँगी ? उनके सामने मुझसे बात करते बनेंगी ? कहीं मेरे मु! से कोई ऐसी बात न निकल जाय. जो उन्हें बुरी लगे । वह पढ़े-लिखे. आदमी हैं, मैं अपढ़ गँंवार ! उनके सामने तो मेरे मुह से बात भी न निकलेगी । वह मुझे अकेला पाकर मुझसे क्या कहेंगे !” इस प्रकार की बातें सोचती हुई वह धीरे-धीरे बाबू रामनाथ के मकान की ओर चली जा रही थी । वह अपने विचारों में इतनी डूबं गयी थी कि उसे इस बात का ज्ञान ही नहीं था कि वह कहाँ जा रही थी । सड़क पर गाड़ी-घोड़ों तथा मनुष्यों का कोलाहल उसके कानों को किंचितूसात्र भी सुनाई न पड़ता था । बाह्यज्ञान न रहते हुए भी मंत्रमुग्ध की भाँति ठीक रास्ते पर जा रही ४ कहें बाबु साहब के मकान के निकट पहुँची । कुछ दूरी पुर से उनका भवन दिखाई पड़ने लया । मकान निकट देखकर उसका हृदय घड़कने लगा, उसकी चाल धीमी पड़ गई । मकान के द्वार के कुछ निकट पहुँचकर वहू ठिठक गई . और सोचने लगी कि जाऊं या न जाऊं । उसका साहस उसका साथ छोड़ने .




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