समाज की वेदी पर | Samaj Ki Vedi Par
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
32 MB
कुल पष्ठ :
179
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मेरी दिंलरुंची, न
आह ! तू कब से मेरे खत के इंतजार में पड़ी होगी, कुंदन.!
मुझाफू करना । तुमे शायद यक्रीन तो न होगा; लेकिन खुदा
को छुक्र है--मैं बाल-बाठ बच गई | नहीं तो, आह ! छाज मैं
कहाँ होती ?' किसीको भला क्या. पता रहता ! तअज्जुब न
करना ! बात दी कुछ ऐसी हुई । इसे न तो बात की सफाई ही
समभना और न खत लिखने का बहाना दी ! मैं तो समकती
हूँ तूखत न पाकर खीक-सी जरूर गई दोगी, तुदुक-मिज्वाज
ठहरी ! अच्छा; चाहे मेरी बातें सच्ची न मानना, मैं मनवाती
भी नहीं, फिर भी जैसा वाक़या गुजरा है, उसे तो कम-से-कमे
तेरे सामने रख दी देती हूँ। दिल चाहे तो पढ़ना; नहीं तो, हो;
रही की टोकरी में दी डाल देना । रु
अच्छा तो; कुंदन, सुनो । परसों के दिन शाम के बक्त गंगा के
किनारे छोगों की खाखी भीड़ थी । सभी अपने मन-चाहों के
साथ इधर-उधर भठखेलछियाँ करते हुए इवाखोरी कर रहे थे ।
गंगा की ऊहदरों के साथ बहुत-सी छोटी-बड़ी किंस्तियाँ खेठ रही
दे
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