कोविंद निबंध | Kovida Nibandha

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Kovida Nibandha by श्रीनारायण चतुर्वेदी - Shreenarayan Chaturvedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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न ष्् न्नननन का भी मुझे पूरा-पूरा मौका मिला । ब्रिटिश गायना में तो मैंने पाया कि जिस काम को भ्रंप्रेज्, डच, पोतगीज, चीनी और हुद्शी नहीं कर सके, उसे हमारे देश से गये हुए 'कुलिया' ने श्राप्तानी से कर दिखाया । ब्रिटिश गायना में जहाँ पहले हजारां एकड़ उबरम्रसित दलदल थे, वहाँ उनकी बदौलत 'शस्य-श्यामल' खेत लहराने लगे । हिन्दुस्तानी किसान की जितनी तारीफ मैंने वहाँ के लोगों के मुंह से सुनी, उतनी के सुनने को मुंझे स्वप्न में भी श्राशा न थी । इनकी वीरता, इनकी घीरता, इन की गुरुता, इनकी काय-कुशलता का जिक्र हर विजातीय की ज़बान पर था | वहाँ का यदद हाल था कि श्राज का नोकर हिन्दुस्तानी कल अपने मालिक की जमीन का मालिक बन जाता था,--बेइईमानी से नहीं, किन्तु अपनी किक्रायतशारी से; छल कपट से नहीं, किन्तु अपनी महदनत- मशक्कत से । इस तरह ब्रिटिश गायना के बहुत बड़े प्रदेश की मिल- कियत हिन्दुश्तानियों के हाथ में आइ । इसी तरदद ट्नीडाड में भी तीन चौथाई के करीब जमीन दिन्दुस्तानियों के हाथ में थी । विचारने की बात है। यहाँ वाले अपने मुल्क से ११, १२ हज़ार मील दूर चल्ले गये । वहाँ उनका कोई पूछने वाला नहीं; कोई साथी नहीं; कोइ सद्दायक नहीं । नया देश, नया कानून, नई रीति-नीति । इनको वहाँ लेजाने वाले व्यापारियों को रुपये कमाने की घुन में मस्त दाने के कारण, इनके साथ कोई विशेष ममता नहीं, इन्हें आगे बढ़ाने का उनको कोई खास उत्साह नहीं । वहाँ की भाषा का भी इनको ज्ञान नहीं । दिन्दुस्तान तक इनकी पुकार पहुँचने का कोई साधन नहीं; झोर अगर पुकार पहुँच भी गई तो उसकी सुनवाई की कोई श्राशा नहीं | ये कुली तो दुनियाँ के उन अभागों में थे, जिनका गुलाम मुल्क में जन्म हुआ और जिन्हें, सोतेले लड़के की तरह माठ-भूमि ने घर से बादर निकाल फेंका छोर फिर जिनकी सुध तक सदा के लिये विसार दी । भाग्य के ठुकराये हुए इन बदनसीबों का दुख में कोई साथी नहीं, कोई संघाती नहीं । एक भगवान्‌ जरूर थे, लेकिन दुख में वे भी इन्हें भूल-से गये। इतने पर भी इन लोगों ने उस दूर-द्राज़ मुल्क में कमाल का जौदर दिखाया ओर




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