धूप के धान | Dhoop Ke Dhan

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Dhoop Ke Dhan by गिरिजा कुमार माथुर - Girija Kumar Mathur

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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न रुप न नई घाराओं-शैलियोके स्वस्थ तत्त्वोका समन्वय क्रनेकी अथक चेष्टा की हुँ : इस पुस्तककी स्वनाओको तीन मुख्य विभागोमे रखकर देखा जा सकता» ” _ हैं। एक ' तो रूमानी गीत्तात्मकता, दुसरे यथार्थ' और रूमानका समन्वय, तीसरे मानववादी वहिर्मुख भावधघारा । ३. तीनो पक्षोमे शिल्पके प्रयोग किये गये हैं, विशेष रूपसे उपसान, रगयोजना और ध्वनिसगीतके । पिछले कवितासग्रह “नाश और निर्माण” में सरवेयेको तोडकर एक नया मुक्त छन्द निर्मित किया था, प्रस्तुत सम्रहकी तीन रचनाओमे नये छन्दोका फिर निर्माण किया गया हैं । “शामकी घूप” मे उर्दूकी छोटी बहर (यथा-नींद क्यों रात भर नहीं आती ) को तोड़कर उसके काल-मान और लयके आधारपर नया मुक्त छ्द रचा है । इसी प्रकार “नये सारकी साँझ” का छन्द भी गज़लके काल-मानपर लिखा गया है । “चाँदनी गरवा'' का छन्द एक गुजराती लोक-गीतसे लिया है जिसे गरबा नृत्यके समय गाया जाता है- (आशी सादो शरद पुनसनी रात जे, चाँदलिया ऊग्यो रे सखि सहारा चौक साँ) “न्यूयाकंमे फॉल” सम्रहकी एक विशेष रचना है जिसमे आधुनिक वस्तुप्रतीकोका नया उपयोग है। शैली-शिल्पकी दृष्टिसि “याज्ञवल्क्य और गार्गी” एकालाप उल्लेसख्य है । ऐसे मोचोलोॉंग का उपयोग हिन्दी कवितासे बहुत कम हुआ है। प्रयोगके इस वर्गंमे “चन्दरिमा” भी आती है जो प्रभाववादी खड-विस्ब है। “सिन्धु तटकी रात” और “हेमती पूनो” मे छर्द और दाव्द-योजनाकी सक्षेप-शैली (ब्रेविटी) द्रृष्टव्य है । 'ढाकवनी”” में जहाँ एक भोर वातावरण निर्माणके छिए जनपदीय (वुन्देलखड ) उपमान, प्रतीक, और शब्दयोजनाका आधार लिया गया है वहाँ दूसरी ओर समाज- यथार्थ (सोशल रियलिर्म) के शिल्पका प्रथम बार उपयोग किया गया हूँ। इन कतिपय रचनाओका उल्लेख केवल उदाहरणायथं किया है । संग्रह की अन्य समस्त रचनाओका अपना अपना विशिष्ट व्यक्तित्व है, जिनमे दिल्प प्रयोगोंके साथ सामाजिक वस्तुके सामजस्यका यत्न मिलेगा और आगत फसल की अनिमेष प्रतीक्षा ! - गिरिजा कुमार माथुर




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