स्थानांग सूत्र | Sthananga Sutra

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Sthananga Sutra by मिश्रीमल जी महाराज - Mishrimal Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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यहा पर यह स्पष्ट वरना श्रावश्यक हैं दि ताथवर झ्रथ रूप मे उपदेश प्रदान करते हैं, व श्रथ मे प्रणेता है। उस झथ वा सूचवद्ध दरने वाले गणघर* या स्थविर हूँ। नदीसूत्र झालि म झागमा के प्रणता तीथकर वह हूं ।* जन भागमों का प्रामाप्य गणघरकृत होन से ही नहीं, अपितु अ्रथ के प्रणेता तीयंवर की बीतरागता झौर सर्वाधमाक्षात्वारित्व के वारण है । गणधघर केवल द्वादशागी की रचना करते हे। नगवाह्य झागम की रचना बरने वाले स्थविर है !* अगवाहा श्रागम का प्रामाण्य स्वतन्र भाव से नही, अपितु गणघरप्रणीत श्रागम के साथ झ्रविसवाद होन से है । श्रागम की सुरक्षा में बाघाए चैंदिष विज्ञा न वेदा को सुरक्षित रखने का प्रबल प्रयास क्या है. वह भ्रपूव हैं. श्रनूठा है। जिसके फनस्वरूप ही श्राज वेद पूण रूप स प्राप्त हो रहे है । झ्राज भी शताधिक एस ब्राह्मण बेदपाठी है, जो प्रारम्भ स प्रान्त तब वेदों का शुद्ध-पाठ कर सकने है । उहें वे” पुस्तव वी भी श्रावश्यक्ता नहीं होती ! जिस प्रवार ब्राह्मण पष्डिता ने वदा वी सुरक्षा की उस तरह झागम श्र ब्रिपिटको वो सुरक्षा उन श्रौर बौद्ध वित्त नहीं कर से 1 जिसके नेक कारण है। उसमे मुख्य कारण यह है कि पिता की श्रोर से पुन वी वद विरासत वे रूप मे मिलते 'रहे हैं। पिता श्रपने पुत्र को बाल्यवाल से ही वदा का पढ़ाता था । उसके शुद्ध उच्चारण वा ध्यान रखता था । शब्दों मे कहो भी परिवतन न हा, इस का पूण लदेय था । जिसस शब्द परम्परा वी दप्टि से बद पूर्ण रुप स सुरक्षित रहे । विन्तु अ्रथ की उपेक्षा हाने से बंदा वी झ्थ परम्परा मे एबरूपता नहीं रह पाई, वदा की परम्परा वशपरम्परा वी दप्टि से श्रबाध गति से चल रही थी । वंहों वे श्रघ्ययन के लिय ऐस भ्रनेक विद्याकेद्र थे जहाँ पर केवल वेद ही सियाय जाते थ । वेदा के श्रघ्ययन श्रौर श्रध्यापन का अधिकारी केवत ब्राह्मण वग था ! ब्राह्मण वे लिये यह झ्रावश्यक ही नहीं अपितु श्रनिवाय था फि वह जीवन वे प्रारम्भ म बता वा गहराई से अध्ययन करे । बेदा का विना श्रध्ययन किये ब्राह्मण घग का समाज में कोई भी स्थान नहीं था । वेदाध्ययन ही उस क॑ लिये सवस्ब था । श्रनक प्रकार के नियावाण्डा मे वैदिक सूक्ता का उपयाग होता था । वहा को निखन श्रौर निखान म भी विसी भी प्रवार वी वाघा नहीं थी । ऐसे श्रनेव कारण थे, जिनसे वंत सुरक्षित रह सके, कि तु जन झागम पिता की धरोहर वे रुप मे पुर को कभी नहीं मिले । दीक्षा ग्रहण करते व बाद गुरु श्रपन शिप्या वो भ्रागम पढाता था । ब्राह्मण पण्डितो को श्रपना सुशिक्षित पुत्र मिलना कठिन नहीं था । जबकि जन श्रमणा को सुयोग्य शिप्य मिलना उतता सरन नहीं था । श्रूततान की दप्टिसे शिप्य वा मधावी श्रौर जितासु होना झावश्यय था । उसदे प्रभाव मे मदवुद्धि व श्रालसी शिष्य यदि श्रमण होता तो वह भी श्रूत का श्रघिवारी था 1 ब्राह्मण क्षतिय बैश्य आर शूद्र ये चारो ही वण वाले विना बिसी सकाच व जन श्रमण धन सफतें थे। जैन श्रमणा कौ श्राचार-सहित्ता था प्रध्ययन करें तो यह स्पप्ट है कि दिन भौर रात्रि वे श्राठ प्रह्रा मे चार प्रहर स्वाध्याय क॑ लिय झावश्यक सान गये, पर प्रत्येक श्रमण के निये यह झनिवाय नहीं था कि बहू इतने समय तक झागमा का अध्ययन वरे ही ! यह भी अनिवाय नहीं था, वि मोक्ष प्राप्त वरने बे लिय सभी झागमा था गहराई से झवघ्ययन झादश्यक ही है । माक्ष प्राप्त करने के लिय जीवाजीव वा परितात '्रावश्यय' था । सामायिव झादि आवश्यक क्रिया से माक्ष सुलभ था। इसलिये सभी श्रमण श्रौर ७. श्रावश्यक नियुक्ति १९२ ८. नदासूत्र ४० ९ (व) विशेषावश्यय भाष्य गा शुभ ० (ख) बुहत्वल्पभाष्य गा १४४ (ग) तत्त्वाथभाप्य १-२० (घ) सर्वायसिद्धि ११२० [हि]




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