कारावास | Karavas

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Karavas by विजय चौहान - Vijay Chauhan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रारंसिक त्रतुमव जेल की जिन्दगी के प्रारंभिक दिन श्रब भी स्पष्ट रूप से मेरी आँखों के सामने झ्राते हैं । कैद के बाक़ी बरसों की स्मृति भ्रब घुंधली हो गई है, कुछ बरप्त तो पिघलकर विस्मृति के गर्भ में खो गये हैं--सिर्फ़ उनकी श्तंकभरी, .नीरस श्रौर दम घोंटने वाली श्रनुभूति बाक़ी है । लेकिन साइबेरिया .में गुजारे प्रारंभिक दिनों की घटनायें मेरे दिमाग में. बिल्कुल नाज़ो हैं, लगता है, जैसे ये सब कल हीं की बातें हैं । ऐसा होना. स्वाभाविक भी है । मुझे भ्रच्छी तरह याद है कि जेल की जिन्दगी की जिस बात ने सबसे पहले मेरा ध्यान श्रा्कर्षित किया था, वह थी वहाँ की साधारणता १ वहाँ कोई विलक्षण या श्रप्रत्याशित बात नहीं होती थी । लगता था जैसे साइवेरिया के रास्ते में ही मुक्ते भावी जीवन की कलक मिल छुकी थी । लेकिन साइवेरिया पहुँचने के बाद ही मुझे हर क़दम पर श्रमानु- घिक॑ यरथाधों का सामना करना पड़ा । बहुत दिनों बाद, जब मैं जेल के जीवन का ्रांदी . हो गया था, मुक्ते उस जीवन की. विलक्षणता श्ौर अ्रसाधारणुता का श्राभास हुमा श्रौर मेरा झाइचये दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही गया । सच पुद्धिये तो बरसों लंबी क़ैद काटने के बाद भी मेरे उस श्राइचर्य में कमी नहीं हुई । जेल में घुसते ही मेरा मन वितृष्णा से भर . गया, लेकिन श्राइचये है कि जेल की ज़िन्दगी मेरी कल्पना से कहीं श्धिक श्रासान थी 1 क्रंदियों ने बेड़ियाँ जरूर पहन रखी थीं, लेकिन वे जेलभर में मटरगती करते; गाते, ऋूमते, सिगरेट श्रौर वोदूका पीते, गालियाँ बकते फिरते थे (वोदूकों बहुत थोड़े क़ैदी ही पीते थे) । रात के वक्‍त कुछ लोग .तादा भी खेलते थे । मुकते जेल की मशवकत भी इतनी “कड़ी” नहीं मालूम हुई,




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