विश्व-सभ्यता का विकास | Vishv-Sabhyata Ka Vikas

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Vishv-Sabhyata Ka Vikas by चिरंजीलाल पाराशर - Chiranjilal Parashar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विषय-प्रवेश प्रस्तुत पुस्तक का विपय “विदव-सभ्यता का विकास है । ग्रपने-श्रपने समय मे, विभिन्न रूपो मे विसव की सभ्यताए विकसित हुयी । कुछ सभ्यताए एक दूसरी के सम्पर्क में प्राकर फली-फुनी श्रौर कुछ सभ्यताशओ का विकारा उस देश के मननशील विद्वानों द्वारा ही हुम्रा । इन मननशील विद्वानों ने श्रपने देश की सभ्यता के विकासार्थ धर्मों की स्थापना और विवेचना की । प्रकृति के गूढ रहस्यों को खोलने के श्रतिरिक्त मानव कल्याणा्थे वेद वेदान्तो की रचना के श्रतिरिक्त खगोल ज्योतिष-णास्त्र, चिकित्सा-शास्त्र, न्याय शास्त्र, ग्र्थ-गास्त्र, ज्यामेति तथा मूतिकला श्रौर भवन-निर्माण-कला श्रादि पर गहन विचार किया, जिसका प्रमाण हमे विभिन्न देशों की सभ्यताश्रो में मिलता है। इस तरह हम देखते हैं कि मानव ने श्रपने, श्रपने समाज के श्रौर देश तथा विश्व के कल्याणार्थ भारी चिन्तन किया है श्रौर उसी चिन्तन-शीलता का परिणाम “सभ्यता' है। भारतीय सम्पता का विकास--विद्व-सभ्यता की दृप्टि से भारतीय सभ्यता प्राय सभी प्राचीन सभ्यताश्रो से प्राचीन है । इस कथन का सबसे बडा प्रमाण यही है की विदव की प्राय. सभी सभ्यताश्रो पर इसकी छाप स्पष्ट अकित होती है। इसके श्रतिरिक्त ससार के सभी धर्मों के धार्मिक सिद्धान्तो के अवलोकन से भी यह स्पप्ट हो जाता है कि उन सिद्धान्तो के श्रघिकाँश भाग, भारतीय घर्में-शास्त्रो से ही संग्रहीत किये गये है । 'मोइन-जो-दडो' की खुदाई (१९२२ ई०) से पहिले, युरोपियन इतिहासकार संवसे प्राचीन सभ्यत्ता मिस्र (इजिग्ट ) की मानते ये । उसके परचात्‌ युनानी श्रौर ईरानी सभ्यताश्रो का नम्बर भ्राता था । सबके पदचात्‌ भारत का स्थान माना था । उन्हीं की मान्यताश्नो को आधार बनाकर, भारतीय इतिहासकारो ने भी श्रपनी भारतीय सभ्यता को तीसरे-चोथे स्थान पर ही मानकर सन्तोष कर लिया था । स्वय लोक्मान्य तिलक तक ने श्रार्यों को उत्तर-घ्रूव प्रदेश का निवासी मानकर, भारतीय सभ्यता को तीसरी श्रेणी में ही रखा था, परन्तु मोइन-जो-दडो की खुदाई ने इतिहासकारो को श्रपनी प्राचीन घारणाए बदलने पर विवण कर दिया । झ्रत अब उन्हे सब देगी की उत्खनन से प्राप्त वस्तुझ्री पर भारतीय प्रभाव ही दृष्टिगोचर होता है, किन्तु भ्रव थी यह मोइन- जो-दडो सभ्यता श्रौर “प्रायं-सभ्यता” को पृथक्‌ मानकर, *मोइन-जो-दडो सभ्यता को




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