अनंत के पथ पर | Anant Ke Path Par

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Anant Ke Path Par by श्री हरिकृष्ण प्रेमी - Shree Harikrishn Premee

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इस “महाशुन्य” में किसका में अनुभव कर मुसकाती ? में श्रपने ही कल-रव को क्यों नहीं समभकने पाती ? नभ के “पढें” के पीछे करता है. कोन “इशारे ? सहसा किसने. जीवन के खोले हैं... बंधन सारे? रुक सकी न इस कुटिया में, रह सकी न में मन मारे। हो अब प्रवाह ही. जीवन, छूटें.. सब कूल-किनारे । जग के सुख-दुख से. मेरा अब टूट चुका है नाता । पर, समभझ नहीं पाई हूँ है. मुझको कौन. बुलाता ?




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