अंजना सुंदरी नाटक | Anjanasundari Natak

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Anjanasundari Natak by कन्हैयालाल - Kanhaiyalal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अंक र. (१७) रहाहै; बारम्बार जैभाई क्यों लेतेहों, शूत्पताके साथ क्या निहार रहे, आपका ध्यान किघर है बोठते क्यों नहीं ? चित्तइत्तिको संभाठो और अपना दुखडा कहो, तुम्हारे विवाहका काल निकट है तुमको उदास न होना चाहिये । धर पवनजय-( ऊपर देखकर ) आवों मिंत्र' अच्छे अवसरपर जाये. इस थ जगतमें मित्रके समान और कोई आनदका कारण नहीं है, मित्रकी सहायतासे सब कार्य सिद्ध होतेहैं. तुम मेरे परम मित्र हो, हमारे तुम्हारे दो देह और एक मन है. तुमसे मेरा कोई भेद छिया नहीं, अब मैं अपना दुःख क्या कह कहते हुये छजा आतीहै, परतु यदि प्रजा अपना दुःख राजासे, शिष्य गुरुसे, ख्री पातिसे, रोगी वैद्यसे, बालक मातासे और बुद्धिमान अपने मित्रसे न कहे तो उसका दुःख निद्वत्त नहीं होता. अंजनाधुदर्रके रूपकी प्रशंसा सुनकर मेरी यह बिकल दशा हुई है. भव उस सुदरीके देखे बिना चेन नहीं पडता, यदि तुम मेरे सचे मित्र हो तो कोई ऐसा उपाय करों कि जिससे शीघ्रही मिठाप हो. प्रेम करनेसे पहिछे अपने मित्रकी प्रीति अपने मनमे उत्पन करनी ' योग्य है सो में करचुका, अब मेरा मन प्रीतिबदा होकर प्रियाके पीछे दोडनेको, प्रेरणा करता है और मेरे वदामें नहीं रहा चाहता । प्रदस्त-मित्र ! भाग्यके तुम बी हो जो+ अजनासुंदर्रीको समान खली तुमको प्राप्तहुई. अंजनाकासा सौंदर्य आजदिन इस छ्रथ्वीमरमें अन्य ख्रीका नहीं, मैंने,अजनाकों स्वय देखा है. उसके कमछकेसे नेत्र जिस समय कटाक्ष कर देखतीहै बाणके समान हृदयमें पार होंजाते हैं. केहरिकीसी कठि, कदर्लास्तम समाम कोमर जंघा, जिस समय शत पनके शकोरेसे नागिनरसी




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