नीरजा - विवेचन | Nirja Vivechan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
165
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(१७९ )
कु जो के नीचे झरते हरसिंगार की छय्या पर तम और चॉदनी आलि-
गन-पाद में वद्ध पड़ है और वह मघूपवन ! इसे देखो, इस लोभी ने
इतने मघुका संचय किया है. कि उसके भार से इससे चला सी नहीं
जाता । पर कित्तन्ग अजान, कितना निप्दुर है अपना प्रेमी जो हृदय के
मानस को सूखते देख रहा है और आता नहीं । मंतर भर उठता है,
दरीर सिहर उठता है और मॉसू की वू दे बरोनियो में उलझकर रह
जाती है । पर इससे लाभ ? सब व्यय है । सब सारहीन ! विरह
सत्य ! प्रतीक्षा सत्य है !! व्यथा सत्य है 1!!!”
विशेष १--पुरूकन सिहरन तथा करते हुए मासू सार्विक अनुभाव'
हूं । यह अनुभाव सारा रहस्योदूघाटन कर रदें है--मूल भाव को वता.
रहे है । 'रह्मि' की इन पक्तियों से तुलना कीजिए--
“किस सुधि-वतरत का सुमन-तीर
कर गया मुग्घ मानस अधीर
रु >६ 9६
संजरित नवल मृदू देह डाल
खिल उठता नव पुछूक-जास
मघु-कन सा छलक नयन-नोर
रद रद ज *
अलि सिहुर-सिहर उठता शरीर
२... 'बुनते जाली'--की तुलना प्रसाद के 'आँसू' की
निम्न पंक्तियों से की जा सकती है :--
लिपटे पड़े सोते थे सन में
सुन्न-दुख दोनो ही. एऐंसे
चन्द्रिक श्रंघेरी मिलते
_ सालती फुज में जैसे”
१. विदवम्भर “सानवों व
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