भारत - गीत | Bhaarat Giit

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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निवेदन ९ था जांति को अपने लिये ऐसी परिस्थिति उपस्थित कर लेना अपने अनिष्ट का श्रावाइन करना है । सामयिक पत्रों में बरसों से हिदी-लेखकों की लेखनी से भिकले हुए श्रनेकों उपालंभ श्रधवा उपालंभों में सने हुए लेख देखने में बाते रहे हैं। कई पौड़ लेबर भी इस प्रवृत्ति में परिलिप्त पाए गए हैं । यद उपालंभ ईश्वर को दिए हुए उलाहने हैं कि वह भारतत्रषे के धार या हित के लिये कुछ नहीं कर रहा है, उनमें प्राथना भी शामिल' है कि अब देर न करो, श्रात्यों श्र उचारो, जैसे पहले समयों में पुका- रते ही झा जाते थे, बीसों बार भक्तों की सुध ले चुके हो, हमारी बिरियाँ क्यों गहरी नींद में ग़क़॑ हो रहे हो, इत्यादि इत्यादि । ईश्वर से पद-पद पर श्रपनी सेवा कराने की यह कामना प्रवृत्ति हमारी अधोपकषिणी, श््रवांछनीय, सानसिक स्थिति है । इसके परिहार को दृष्टि से पाठकजी ने दो एक पद्य उपालंभीय पथ्यों के सक़ाबिले में भ्रपने उक्त उद्देर्य को उच्लिखित किए विना ही प्रकाशित किए थे, यथा-- नट नागर हैं न कहीं अटके ये इस संकलन दो झाजा झाजा शांति शक्तिदा ्ञाजा । में सम्मिलित उराहिने को उत्तर हैं। इस ्राशा से कि मेघावी जन उनके झभिपाय को अवश्य अवगत कर लेंगे । परंतु परिणाम विपरीत हुआ । उपालंभों के लेखकों को उनमें कुछ श्रौर गंध श्राने लगी जिसके सूचित करने की यहाँ पर श्रावश्यकता नहीं, श्र पठकजी का प्रयास विफल हु । उपालंभन परिपाटी श्रभी तक यथावत्‌ प्रचलित है । स्वायत्तता को उषा अभी उदित नहीं हुई ; पराश्रय-वृत्ति ही झभी प्रबल दिखाई पढ़ रही है । परंतु संभव है, कुछ समय के झनंतर स्वतः परिवतन हो जाय । इन गीतों को पाठकजी ने परमार्थ दृष्टि से रचा है और वह




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