सुशीला उपन्यास | Sushila Upanyas
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
262
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१० सुशीला उपन्यास
एक छोटी-सी पगडंडी पर ऐसे समय में एक भाग्य का मारा
हुभा पथिक चल रहा है। उसके चंचल नेत्र चारों तरफ का हृश्य
देख रहे हैं; परन्तु न जाने क्यों श्रांसुभों की धारा बहा रहे हैं। वह
पथिक अझश्र,घारा को दस पांच कदम चलके दुपट्र से पोंछ लेता है,
परन्तु धारा बन्द नहीं होती ।
पाठकों ! यह श्रौर कोई नहीं भ्राफत का मारा हुमा बेचारा
भूपसिंह है । कई दिन का भुखा प्यास। जयदेव श्रौर सुशीला की खोज
में इस जडल में भरा फंसा है ।
जड्जल की विस्तीणंता देखकर भुपसिंह को उससे शीघ्र पार होने
की चिन्ता हुई । प्रत: वह द्र,तगति से चलने लगा । श्रौर संध्या होने
के कुछ पहले एक नगर में जा पहुंचा । वहां भोजनादि की चिन्ता
से निवृत्त होकर नगर के बाहर एक सुन्दर उद्यान में कुछ लोगों को
झाषस में वार्ता करते देखकर उनके पास जा खड़ा हुआ श्रौर बात-
चोत सुनने लगा । उनके द्वारा जो कुछ सुना उसे भूपसिह ने आँखों
से भी देख लिया । भ्र्थात् देखा कि एक चतुर्ध सेना बड़े वेग से इस
नगर की ओर चली श्रा रही है । रथ, सैनिक, पदातियों का महास मुद्र
उमड़ा झा रहा है। भगवती प्रृथिवी बिपुल धूल उड़ाकर उसका
स्वागत कर रह्दी है।
यह खबर विद्यद् ग सें सुवणंपुर नगर भर में फैल गई । वहां के
महाराजा ने परचक्र से श्रपनो रक्षा करने के लिये श्रपने सेनापति को
सचेत किया । सेनापति तत्काल ही सेना तैयार करके मुकाबला करने
के लिये सुसज्जित होकर नगर के वाहर पड़ाव में श्रा डटा ।
इन दोनों चकों में रणचण्डी को नृत्य करती हुई देखकर घोर
हिंसा के हृश्य का श्रनुमान कर श्रनुकम्पा-कम्पित सूयंदेव भ्रस्ताचल
को भ्रोट में हो गये । उनके अस्त होते ही पश्चिम दिशा में संध्या की
लालिमा युद्धस्थलवाहिनी रक्त नदी का नमूना दिखाने लगी । धीरे-
धीरे लालिंमा विलायमान हो गई श्रौर चारों आर भझन्घकार ने झपना
राज्य जमा लिया । मिथ्यात्व उपशमसम्यक्त्व के अस्त होने से इसी
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