जैन धर्म और दर्शन | Jain Dharm Aur Darshan
श्रेणी : धार्मिक / Religious, पौराणिक / Mythological
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
299
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)आमुख / 11
इसी प्रकार की श्रांतियाँ जैन दर्शन के विषय में हैं। कुछ लोगों की मान्यता है कि
भारतीय दर्शन दो वर्गों में विभाजित है--आस्तिक और नास्तिक। वैदिक दर्शनों को
आस्तिक और जैन, बौद्ध और चार्वाक दर्शनों को नास्तिक माना जाता है । यह वर्गीकरण
भूल से हुआ है । लेखक ने लिखा है
आस्तिक और नास्तिक शब्द अस्ति नास्ति दिष्ट॑ मति इस पाणिणी सूत्र के अनुसार
ये शब्द बने हैं। मौलिक अर्थ उनका यही था कि परलोक (जिसको हम दूसरे शब्दों में
इंद्रियातीत तथ्य भी कह सकते हैं की सत्ता को मानने वाला नास्तिक कहलाता है । स्पष्टत:
इस अर्थ में जैन और बौद्ध दर्शनों को नास्तिक नहीं कहा जा सकता । इसके विपरीत हम तो
यह समझते हैं कि शब्द-प्रमाण की निरपेक्षता से वस्तु तत्व पर विचार करने के कारण दूसरे
दर्शनों की अपेक्षा उमका अपना एक आदरणीय वैशिष्टय ही है ।
चार्वाक जहां नास्तिक दर्शन है वहां जैन और बौद्ध दर्शन आस्तिक हैं क्योंकि ये
दोनों ही मोक्ष और परलोक में आस्था रखते हैं । वस्तुतः: भारतीय दर्शन में दो ही विभाग
हैं--वैदिक और अवैदिक, जैन और बौद्ध दर्शन दूसरी कोटि में आते हैं, क्योंकि ये वेदों को
अपौरुषेय नहीं मानते ।
जैन धर्म और दर्शन विश्व को निवृत्ति मूलक जीवन शैली प्रदान करता है । संतुलित
जीवन जीने की कला जैन धर्म की प्रमुख देन है । यह अहिंसा-मूलक सिद्धांत से सम्पृक््त
है । महात्मा गांधी ने श्रीमद्रायचंद्र के सदुपदेश से आजीवन निवृत्ति मूलक शैली अपनाई
और अहिंसा को अपने जीवन का आधार स्तम्भ बनाया । 'जीओ और जीनों दो' यह जैन
दर्शन-जैन धर्म का प्रमुख सिद्धांत है । जैनाचार अहिंसा की भूल-भित्ति पर अवस्थित है ।
चार खंडों में विभक्त पुस्तक कौ आरंभ में जैन धर्म की पृष्ठभूमि बताते हुए मुनिश्री ने
जैन इतिहास की एक झलक दर्शायी है । अनंतर तत्व एवं द्रव्य का विवेचन है, जिसमें जीव
और उसकी अवस्थाएं, अजीव तत्व और पुद्गल द्रव्य का विशद वर्णन करके अगले
अध्याय में कर्म बंध की प्रक्रिया पर प्रकाश डाला है । फिर वह आते हैं आत्म विकास के
क्रमोन््नत सोपान पर । जेनाचार, मुनिधर्म , सल्लेखना आदि का विस्तृत विवेचन करते हुए वह
अनेकांत व स्याद्वाद की प्रस्तुति के साथ पुस्तक का समापन करते हैं । पुस्तक की संपूर्ण
सामग्री को उन्होंने उननीस अध्यायों में समेटा है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जिनागम के मूल तत्वों के निरूपण से लेकर कर्म सिद्धांत
की विशद व्याख्या करते हुए कर्म बंध से मुक्ति के उपाय संवर-निर्जरा द्वारा मो क्ष-साधन,
अनंतर श्रावक को श्रेवकाचार और श्रमण को श्रमणापचार का प्रतिपादन करते हुए जैनधर्म
की मूल धुरी अनेकांत और स्याद्वाद का सविस्तार उल्लेख करते हैं । और अंत में सल्लेखना
का मार्ग प्रशस्त. करते हैं ।
जैन धर्म और दर्शन बड़ा जटिल विषय है । उसकी परिभाषिक शब्दावली में सामान्य
पाठक तो क्या प्रबुद्धवर्ग भी प्राय: उलझ जाता है । किंतु मुनिश्री ने इस पुस्तक में गूढ़ से
गूढ़ तत्वों को भी सरल तथा लोकभाषा में समझाया है । उन्होंने मूल शब्दावली को छोड़ा ही
नहीं है, लेकिन उदाहरणों के द्वारा उसे स्पष्ट कर दिया है। उन्होंने विश्व के. विख्यात
दार्शनिक विज्ञान वेत्ताओं के मतों को मूल शब्दावली में परिभाषित किया है । इस शब्दावली
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