निर्ग्रन्थ प्रवचन | Nirgranth Pravachan

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Nirgranth Pravachan by चौथमल जी महाराज - Chauthamal Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ मादारय (७) न बरजरनणा सीमा कहीं विभानत दोती दै १ आत्मा के श्रतिरिक्त पर- मात्मा कोई मिन्न है या नददीं १ यदि नद्दी तो किन उपायों से किन साधनाओं मरे बझात्मा परमत्म पे पा सकता दें ? इत्यादि प्रहने। का सरल, छुस्प्ट थोर शतापत्रद समाधान हुए निम्रन्थ प्रवचन में मिलता दै ? इसी प्रकार जगत्‌ कया इ है बदद धनादि है था साद है श्ाद गदन समर्पाश्यों का निराकरण मी दम निधने थ प्रवचन में देव पाते दें । इम पढले ही बढ चुके है कि निद्नैन्यों का प्रवचन किसी भी प्रकार की शीमाश्रों से घावद्ध नदों दै । यद्दी कारण दे रिवदद ऐसी न्यापक विधियों का विधाने करता है जो थाष्यातिक दृष्टि से भ्रत्युत्तत तो हैं ही साथ दी उन विधानों में से ऐइलीकिक सामामिक शुव्यवत्या के लिए सर्वोत्तम व्यवद्वारॉपयागी नियम भी निकलते हैं । संयम, खाग, निष्परिप्रदता ( श्रौर धावडों के लिए परिम्हरपारि- माण ) श्रनेकॉन्तवाद योर कमादानों का स्याउरता प्रसत ऐसी दा कु 4 विधियों हैं, निनके न झवनान के कारण झावे समाज में भापण विश्दश्नला दटिगोचर दो रही डे । निप् ये ने जिस सून शाशय से इन बातें व! विधान किया दे उस शाराथय को सर मुख स्खकर यदि सामाजिक विधानों वी रचना को जाए तो समाज फिर इरा-सरा, सम्पन्न, सन्तुटट शोर घुखमय बन सकता दै । थाध्यात्सिक दृष्टि वे तो इन विधानों का मदत्व दे दी पर सामाजिक दृष्टि से मी इनसा उसंधे बम मदत्व नहीं दे । सयम, उस मनोबत्ति के निरेष *




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