साधना के पथ पर | Sadhana Ke Path Par
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
338
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१
श्रात्मविकास का मागगे
अट्टविहकस्मवियला.. णिट्ठियकण्जा.. पणहुसंसारा ।
दिट्द्सयलत्यसारा सिद्ध सिद्धि मम दिसतु ॥
“आज विकास का विपय है । विकास का अर्थ विस्तार है । एक वस्तु यदि
एक रूप मे ही बनी रहे तो उसे नष्ट होते देर नही लगेगी । यदि वही वस्तु
अनेक रूप मे आ जाय तो फिर उसके नष्ट होने की कोई वात नही है ।
विकास भौतिक पदार्थों का भी है और आत्मा का भी है । बाज जितना भी
बाहरी पदार्थों का विकास आप देख रहे हैं, वह सब भौतिक विकास ही है ।
नाना प्रकार के कल-कारखाने, विजली के कार्ये, मशीन और यत्रो के कार्य,
नाना प्रकार के परमाणु अस्थों का निर्माण और एटमबम आदि सब भौतिक
विकास हूँ जिनसे आप सबकी नाना प्रकार की इच्छाओ की पुतति हो रही है ।
आप जितने उद्योग कर रहे हैं, देवी-देवताओ को मनाते है, जालसाजी, कपट
ओर धूत॑ता करते हैं, तो इस सबका सुल ध्येय कया है ? यही कि दुनिया में
हमारा विकास हो, हम भागे बढें और दुनिया हमारी बोर देखें । वैथव की
वृद्धि को कम कोई नहीं करना चाहता है, सभी उसकी वृद्धि करने मे ही लग
रहे हैं । परन्तु यह भौतिक विकास भी कब होता है ? जबकि पूर्व भव-कृत्त
शुभ कर्मों के उदय का सयोग मिले, स्वय मनुष्य उद्योग करे और निमित्त,
उपादान कारण सब ही शुद्ध प्राप्त हो जायें तो झट विकास हो जाय । मनुष्य
लाखो का लाभ चाहता है, परन्तु होता है सैकडो का ही । क्योकि मनिमित्त
उपादान, कारण समुचित रूप से मिले ही नहीं । बिना निमित्त, उपादान,
कारण के वह आगे कैसे घढ सकता है ।'
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