बयालीस के बाद अर्थात विसर्जन | Bayalis Ke Bad Arthat Visarjan

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Bayalis Ke Bad Arthat Visarjan  by प्रतापनारायण श्रीवास्तव - Pratap Narayana Shrivastav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बयालीस के बाद ं | तमाम बदन जल गया है । उसकी हालत नाजुक है । उसने इस घर का पता देकर तुमको घुला लाने को कहा । सला, 'ादमी कैसे श्याते ? इसलिए हमको ही आना पड़ा ।' में सुनते ही चपनी सुध-बुध खो बैठी । बिना विचारे उनके साथ चलने को तैयार हो गई । जिसने मुकसे बात की थी, उसको मैं अच्छी तरह' पहचान सकती हूँ, क्योंकि उसके दाहिने गाल पर एक वड़ा-सा काला मस्सा है । दूसरी को भी पहुचान सकती हूँ, बह सांवले रंग की कुछ 'घवैसू है ।” कतक ने पूछा :--““अच्छा, इसके बाद कया हुआ है?” चर्मिला ने आँसुधों को पोते हुए कहा :--““उन्होंने चर से निकलते ही कहा कि “हमारे सिल-मालिक भी कैसे द्याहु सन हैं कि उन्होंने यह सुनते ही बपनी मोटर और हमारी रक्षा के लिए चार आदमी तुरंत दे दिये । जल्दी चलो, चनकी हालत बहुत खराब है।' मैं उनकी वातें नहीं सुन रही थी, मेरा सन तो उनके पास पहुँचने के लिए बिकल था । सैं तुरंत सोटर में बैठ गई । तीन 'छादसी सो हमारे साथ दी बैठ गए और एक पीछे रह गया । सोटर हमको लेकर बड़े वेग से चल दी | थोड़ी ही देर में मैं वहाँ पहुँच गई जहाँ यह घटना घटी । एक -ँतची कोठी थी; जिसके रास्ते अयानक पेंचदार थे | वे हमको घुमाती-फिराती एक कमरे में ले गई, और बैठने के लिए कहा । मैंने जब उनसे अपने पति के बारे में पूछा तो वे एक भयंकर शब्द से हँस . पड़ीं + उन्होंने यह स्वीकार किया कि वे मुझे धोखा देकर लाई हैं, और सेरे पति को कोई हानि नहीं पहुँची । इसके बाद उन्होंने कई 'घृण्य प्रस्ताव येरे सामने रखे । रेशमी वस्त्र ओर जड़ाऊ गहने दिखाये, मय दिखाया, और खुशामद की । उनके सामने ही एक प्रौड़ वलिष्ठ व्यक्ति हैँसता हुष्मा च्ाया, 'और मेरी ओर लुब्थ दृष्टि से देखने लगा, जिसकी चितबन से ही भय सत्पन्न होता था । : उसने हँसकर कहा: --घबराओओ नहीं, में तुमको रानी बना- कर रखैूँगा, तुम इस घर की मालकिन हो, अर ये तुम्दारी दासियाँ हैं” फिर उनसे कहा कि इन्हें स्नान कराकर सल्त करो, और लाल शरबत पिलाकर 'रंगमहज' 'में हाजिर करो ।” यह कहकर मेरी ओर देखता हुमा वह चला गधा । इस संसार से में बिलकुल अनजान हूँ । मेरी समझ में न झाता था कि में कया करूँ । अपनी मुक्ति का कोई उपाय संहीं विचार सकती थी । वे ख्ियाँ उस पुरुष का ादेश पाकर इधर-उधर किसी तैयारी में लग गई मैं भी खिड़की खोलकर चाहर देखने ल्नगी । थोड़ी देर बाद मैंने अपने पति को दूर से आते देखा । वे सगे हुए कहीं जा रहे थे । मैं सम गई कि वे मेरी ही खोज में कहीं जा रहे हैं, मैं चेतना खो बैठी और बिना बिचार किये ही खिड़की से बाहर कूद पड़ी । इसके पश्चात्‌ मुकको नहीं मालूम कि कया हुमा । कहते-कहूते उर्सिला के सेत्र मुद गए, चर झाँसु्ों की बढ़ी-बड़ी बूँदें निकलकर गालों को सिक्त करने लगीं। कनक ने लड्नित स्वर में कहा :--“चही प्रो व्यक्ति मेरे पिता थे । मैं .




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