ज्योतिष्मती | Jyotishmati

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Jyotishmati by ठाकुर गोपालशरण सिंह -Thakur Gopalsharan Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ग्योतिष्मतीं होता कभी न म्लान जो हो तुम वह अरविन्द रूप-सुधा-रस का रसिक, में हूँ एक मिलिन्द। मे हँ एक मिलिन्द प्रीति तुममे रखता हूँ, सतत सरस मकरन्द तुम्हारा में चखता हूँ । बहता रहता सदा तुम्हारे रस का सता, पर ता भी संताष न मुझ लोलप का होता । गगन-विहारी भानु दो तुम अति तेज-निधान, एक सितारा द्र में दीन मलीन महान । दीन मलीन महान धेर में बसता हूँ, पाता हूँ जब ज्योति तुम्हारी तब हँसता हूँ । पर पेरे हित क्या न यही गौरव हे भारी ? में भी हूँ युति-प्राण तुम्दी-सा गगन-विहारी | ६




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