जीवन - निर्वाह | Jivan - Nirvah

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Jivan - Nirvah by ज्योति प्रसाद जैन - Jyoti Prasad Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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` २ सदुष्यकां मुष्यत । न ~ ख्य जाछिका पशुजीवनसे उनत्ति करते करते मनुप्यस् प्राप्त करनेका पूर्वोक्त वर्णन मादूम हो जानेपर यह बात सहज दी समझी जा सकती है कि मनुष्योको अपना मनुष्यत्व कायम रखने ओर आगेको उसे अधिकाधिक उन्नत करनेके लिए कौन कौनसे कत्तेव्य पाठन करने चाहिए । क्योंकि जिन सब वातोकी बदौलत मनुष्यको अपने जीवन-निर्वाहकी अनेक उपयोगी वस्तुँ प्राप्त होने लगीं, तथा जिनकी बदौलत उसका जीवन पशुजीवनसे सबैथा भिन होकर अत्यन्त सुखमय तथा परम श्रेष्ठ बन गया, उन सब वातोकी रक्षा करना और उनको उन्नत चनाना मनुष्य-जीवनका मुख्य कर्तव्य हे-और उनसे ही उसके मनुष्यत्वकी रक्षा हो सकती है | उक्त बातोको हम तीन त्रेणियोमे विभक्त करते है-(१) विचारदाक्ति--जिसके द्वारा मनुष्य अपनी उन्नति और सुखणान्तिके बद्धानेवाले नवीन उपायोको खोजता ओर प्राचीन असुविधाजनक तरीकोको छोडता जाता हं । (२) वचनदाक्ति--जिसके द्वारा वारको तथा नवयुवकोको अपनेसे बडे तथा अनुभव्री पुरुषोकी जानी वन्न इई बाते मादरम होती रहती ह और आगे चरूकर जबर ये ही वाठक तथा नवयुवक सयने होते है या पिनृपदको पाते हैँ तत्र वे अपने पूर्थजोकी सुनी इदं ओर अपनी बुद्धि तथा अनुमवसे प्रात की हुईं बातोंको अपने बच्चोंको सुनाते या सिखाते है। इस प्रकार इस बातचीत करनेकी शक्तिकी बदौलत मनुष्य उन सब लोगोकी खोजी हुई वातोको जानता रहता है किं जो ` उससे तैकडो-हज सो पीढी पहरे उत्पन्न इए थे । नवीन खोग प्राचीन लोगोके अनुभवसे जानी हुईं बातोमें अपनी बुद्धिको लडाकर कुछ




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