भारतीय विदेश-नीति के आधार [1860-1882] | Bhartiya Videsh-Neeti Ke Adhar (1860-1882)
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
289
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)11 मध्य एशियाई नोति का सुन्रपात 5
दिशा मे मोड दिया ।' यह अनिवायें भी था व्योति पूर्वों यूरोप मे भासीसी साम्राज्य
के अत ओर रूसी प्रभुता दे उत्थान के कारण एक रूस ही ऐसा यूरोपीय देश रह गया
था जो पूर्व-विजय का रास्ता पपड सकता था। रूस का मध्य एशिया से पुराना सबंध
था और बह पूर्व दो ओर अपने पैर लगातार फैलाता जा रहा था। इससे अंग्रेज के
यान खड़ हो गए क्योकि वे भारत मे अपनों सता की रक्षा म जी-जान से जुटे हुए थे और
मध्य एशिया के वाणिज्य रे पूरा पूरा लाभ उठान के अपने इरादे मे किसी प्रतियोगी के
फूठी आँख भी नहीं देख सकते थे । इसके बाद मध्य एशिया म प्रभुता पाने के लिए
सर्प खूप ओर ब्रिटन म हआ । भारत पर रूस क हमले का डर निराधारं होते हृएु भी
सच्चा थां इसलिए रूस प्रभुत्व से वोच के जिन एशियाई राज्यो बौ सुरक्षा भारत
की सुरक्षा बे लिए आवश्यक समझी गई, भारत और ईंगलैड वौ सरकारा न ^स्सी
होवे से पस्त हागर उन राज्यों की आर पजे पसार। इस प्रवार तेह्रान, हैरात ओर
काबुल भारत त्निटिश राजनय के प्रमुख भदाडे वन गए ।
प्तार्स कै विद्द्ध हसी अग्रधपण (यष्ट ८55०0) इस सदी के शुरू से ही चल
रहा था। इंग्लैंड के दूत न 1813 मे गुलिस्तां जी सधि द्वारा अस्थायी समझौता करा
दिया था। बु्छसालातक फार म शाति रही और इंग्लैंड का प्रभाव वदता रहा;
कितु गावचा के सवाल वो तेवर, जिस पर 1825 स रूस न कब्छा वर लिया था और
जिसे राजनय के द्वारा फारस का न दिलाया जा सका था, फारस म लाकमत इतना भड़व
उठा थि' रूस से लडाई छिड गई। शुरू-शुरू म सफलता मिली पर वाद मे फारस वी सेना
को करारी मुंह खानी पड़ी। फारस न तेद्रान वौ सधि के अधीन ब्रिटिश सरकार
गे सहायता मांगी, लेविन चूँकि उग्र बत्त प्रिंटेम और स्स के बीच शाति थी, इसलिए
ब्रिटेन न मदद देन मे आना-कानी वी । युद्ध म पारस बुरी सरह से हारा और उसे 1628
म सु सानचाइ की अपसानजनक सधि करनी पड़ी । इस संधि के अधीन फारस को अपन
कुछ उपजाऊ प्रदेश रस के हवाले पर देने पड़े, 3,000,000 पौंड की बहुत वडी राशि
हर्नान के तौर पर देनी पडो और इसके अलावा उस बु बाणिज्यिय विशेंयाधिफकार
भी देने पड़े जो एक तरह से रूस ने लिए अपरदेणीय (९५११९ {67०1} अधिकार
थे । साइवस का मत हैँ कि इसके वाद फारस पूरी तरह स्वतत्न राज्य नहीं रहा और अन्य
सूरोपीय राष्ट्र भी उसकी सीमा म विशेषाधिकार चाहने लगे । अंप्रेका के दुष्टिकण
से इस सघि ना पल यह हुआ कि तेहरान-दरवार में उनका प्रभाव घट गया। इस सघि
का दूरारा फल यह हुआ कि पूर्वे स पारस की नीति का उद्देश्य यह हा गया कि बह पूर्वी
1 रॉलिन्सन न लिखा है, “इस सधि की सबस महत्त्वपूण॑ विशपता उसम निहित
यह सिद्धात था कि अगर रूस ने फ्रास पर अकारण ही हमला रिया, तो ग्रेट
बिटेन उसे भारत विरोधी वायंवाहो समसेगा” । संधि के छठे अनुच्टेद म यह्
विशेष व्यवस्था थी कि “भत्ते हो प्रेट घ्रिटेन और रूस के बीच शाति हो पर यदि
कभी रूम फारस पर आक्रमण क्रेया जर् हमारे सत्रयासो से भी मनमेद
दूर न होगे तो हम शाह वी सेना को सहायता नें लिए उपदान दत्त रहना
होगा 1 रॉलिन्मन ने आगें लिया है, “सच बात यह है कि सघि वे छठे अनुच्छेद
के अघोन हम इस बात के लिए बचनबद्ध हो गए थे दि फारस की रक्षा के लिए
हमे रूस स युद्ध भी करना पड सदता है” । ष् 37
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