निर्वाण उपनिषद् 1973 ए. सी. 5115 | Nirvan Upnishad 1973 ac 5115
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11.94 MB
कुल पष्ठ :
400
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कभी कुछ समझ में नहीं आता, करने से ही कुछ समझ में आता है । करेंगे
तभी समझ पाएँगे। इस जीवन में जो भी महत्त्वपूर्ण है, उसका स्वाद
चाहिए, अं नहीं । उसकी व्याख्या नही, उसकी प्रतीति चाहिए। आग कया
है, इतने से काफी नहीं होगा, आग जलानी पड़ेगी । उस आग से गुजरना
पड़ेगा । उस आग में जलना पड़ेगा और बुझना पड़ेगा । तब प्रतीति होगी
कि निर्वाण क्या है। और यह कठिन नहीं है ।
अहंकार को बनाना कठिन है, मिटाना कठिन नहीं है । क्योकि अहंकार
वस्तुत: है नही, सरलता से मिट सकता है । असल में जिन्दगी भर बड़ी
मेहनत करके हमें उसे सँभालना पड़ता दै। सब तरफ से टेक और सहारे
लगाकर उसे बनाना पड़ता है। उसे गिराना तो जरा भी कठिन नहीं ।
इन सात दिनों मे अगर आपका अहंकार क्षण भर को भी गिर गया, तो
आपको इसकी प्रतीति हो सकेगी कि निर्वाण कया है ।
हम समझेंगे सिफें इसीलिए कि कर सके । मैं जो भी कहूँगा उसे आप
बपनी जानकारी नहीं बना लेंगे, उसे आप अपनी प्रतीति बनाने की कोशिश
करेंगे। जो मैं कहूंगा, उसे अनुभव में लाने की चेष्टा करेंगे । तभी इस अवसर
का सदुपयोग होगा । अन्यथा पाँच हजार सालों मे उपनिपद् की बहुत
टीकाएंँ हुई , पर परिणाम तो कुछ भी हाथ नहीं आया । शब्द, भर शब्द,
और शब्द का ढेर लग जाता है। आखीर में बहुत शब्द आपके पास होते हैं,
ज्ञान बिलकुल नहीं होता । जिस दिन ज्ञान होता है, उस दिन अचानक आप
पाते हैं कि भीतर सब निःदशन्द हो गया, मौन हो गया । यह प्रार्थना है
ऋषि की ।
ऋषि ने इसे कहा है, शाति पाठ । परमात्मा से प्राथना करनी हो तो
कुछ भौर कहना चाहिए । परमात्मा के लिए शाति के पाठ का क्या अं हो
सकता है? परमात्मा शान्त है । लेकिन इसे कहा है, शाति पाठ । जानकर
कह्दा है, बहुत सोच-समझकर कहा है । उलटे यह कहा है कि प्राथ॑ना तो
करते हैं परमात्मा से, लेकिन करते हैं अपने ही लिए । हम आअशान्त हैं और
अशात रहते हुए यात्रा नहीं हो सकती । अशान्त रहते हुए हम जहाँ भी जाएंगे
वह परमात्मा से विपरीत होगा । अश्ञास्ति का थे है, परसात्मा की तरफ
पीठ करके चलना |
असल में जितना अशान्त मन, परमात्मा से उतनी ही दूर । अद्याति हो
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