निर्वाण उपनिषद् 1973 ए. सी. 5115 | Nirvan Upnishad 1973 ac 5115

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Nirvan Upnishad  1973 ac 5115 by अज्ञात - Unknown

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about अज्ञात - Unknown

Add Infomation AboutUnknown

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
कभी कुछ समझ में नहीं आता, करने से ही कुछ समझ में आता है । करेंगे तभी समझ पाएँगे। इस जीवन में जो भी महत्त्वपूर्ण है, उसका स्वाद चाहिए, अं नहीं । उसकी व्याख्या नही, उसकी प्रतीति चाहिए। आग कया है, इतने से काफी नहीं होगा, आग जलानी पड़ेगी । उस आग से गुजरना पड़ेगा । उस आग में जलना पड़ेगा और बुझना पड़ेगा । तब प्रतीति होगी कि निर्वाण क्या है। और यह कठिन नहीं है । अहंकार को बनाना कठिन है, मिटाना कठिन नहीं है । क्योकि अहंकार वस्तुत: है नही, सरलता से मिट सकता है । असल में जिन्दगी भर बड़ी मेहनत करके हमें उसे सँभालना पड़ता दै। सब तरफ से टेक और सहारे लगाकर उसे बनाना पड़ता है। उसे गिराना तो जरा भी कठिन नहीं । इन सात दिनों मे अगर आपका अहंकार क्षण भर को भी गिर गया, तो आपको इसकी प्रतीति हो सकेगी कि निर्वाण कया है । हम समझेंगे सिफें इसीलिए कि कर सके । मैं जो भी कहूँगा उसे आप बपनी जानकारी नहीं बना लेंगे, उसे आप अपनी प्रतीति बनाने की कोशिश करेंगे। जो मैं कहूंगा, उसे अनुभव में लाने की चेष्टा करेंगे । तभी इस अवसर का सदुपयोग होगा । अन्यथा पाँच हजार सालों मे उपनिपद्‌ की बहुत टीकाएंँ हुई , पर परिणाम तो कुछ भी हाथ नहीं आया । शब्द, भर शब्द, और शब्द का ढेर लग जाता है। आखीर में बहुत शब्द आपके पास होते हैं, ज्ञान बिलकुल नहीं होता । जिस दिन ज्ञान होता है, उस दिन अचानक आप पाते हैं कि भीतर सब निःदशन्द हो गया, मौन हो गया । यह प्रार्थना है ऋषि की । ऋषि ने इसे कहा है, शाति पाठ । परमात्मा से प्राथना करनी हो तो कुछ भौर कहना चाहिए । परमात्मा के लिए शाति के पाठ का क्या अं हो सकता है? परमात्मा शान्त है । लेकिन इसे कहा है, शाति पाठ । जानकर कह्दा है, बहुत सोच-समझकर कहा है । उलटे यह कहा है कि प्राथ॑ना तो करते हैं परमात्मा से, लेकिन करते हैं अपने ही लिए । हम आअशान्त हैं और अशात रहते हुए यात्रा नहीं हो सकती । अशान्त रहते हुए हम जहाँ भी जाएंगे वह परमात्मा से विपरीत होगा । अश्ञास्ति का थे है, परसात्मा की तरफ पीठ करके चलना | असल में जितना अशान्त मन, परमात्मा से उतनी ही दूर । अद्याति हो १३




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now