जैन जगत के उज्जवल तारे | Jain Jagat Ke Ujjaval Tare

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Jain Jagat Ke Ujjaval Tare by चौथमल जी महाराज - Chauthamal Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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स्कन्घाचायं शील, घर्म-भीर, दयाचान्‌, विद्धान्‌ , विचेकशौीले श्र परम मात-पितु-भक्क थे । पुत्री जब विचाह के योग्य हुई,दरडकारण्य के महाराज 'कुम्भकार' को दी गई | एक दिन महाराज कुम्भ कार का पुरोहित, पालक, सावत्थी में ध्याया । समय पाकर प्र दिन, उरून प्क सभा में, झनकों घकार की कु्याक्कियों रू, नारितक मत का मराडन कर, उसका प्रचार करना चाहा | परन्तु विद्वान, स्व.न्घ-कुमार फ शख-रूम्मत तथा कास्य घ्रमाणों के झाग,पालक के पेर उखड़ गये। उसे भरी सभा में , लग्जित दो कर, कुमार के सामने श्रपनी द्वार स्वीकार करनी पढ़ी । फुमार न उस की धघत्य्क छुयाक्ति का , व्यवहार और सिंद्धान्त दानों को साथ रख कर, यों मुँह-ताड़ उत्तर दिया, कि जिसे देख कर सारी सभा दंग-सी रह गई। चस, उसी पलक से पालक, कुमार का कट्टर शत्रु चन गया | उस के मन में, ईप्या उमड़-उमड़ कर उछुलन लगी । चद्द चहँ से श्रपने गञ्य म श्रभ्या 1 श्रार, द्विन-तत इसी एचन्ता मे रत रहने लगा, कि कुमारः को ्रपनी करणी का मज्ञा कैसे चखायथा जाय । श्र, कुमार ने, किसी पक दिन, भगवान, सुनि खुचत स्वामी का उपदेश खुन लिया । जिसके कारण, संसार की ्सारता का योध उन्हें हो गया । उन के साथ, उस समय, झन्य चारसी निन्यानवे साथी राजकुमार भी थे । उन का भी चही दाल डुश्ा । तब तो इन सभी ने दीक्षा शरण कर ली । श्र, गरे सव के सव श्रपने जप, तप तथा संयम म निमग्न रद कर, इधर-उधर विंचरण करने लगे । क दिन, सुनि स्क- न्धाचार्य ने, दरुडकारण्य पदेश मे जा कर, श्रपनी संसारिक चदिन को प्रातियोध करने की चात सोची । इस के लिए भग- [ ७ |




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