भारतीय विद्या | Bhartiya Vidha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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' हेमचन्दराचार्यकी प्रमाणमीमांसा नैः लेसक-पढ़ित शीसुसलाठजी शास्त्री [ सुख्याध्यापक-जैनदुर्शनशाखर, हिदुयुनिवर्सिटी, बगारस । ] 1 ६१ ग्रन्थका आभ्यन्तर खरूप। हेमचन्द्राचा्यके बनायें हुए प्रमाणमीमासा नामक मयका - जो कि आपूर्ण खरूपमें ही वर्तमानमें उपलब्ध होता है- ठीक ठीक और वास्तविक परिचय पानेके लिये यह अनिवार्य रूपसे जरूरी हैं कि उसके आम्पतर भोर बाह्म खरूपकां स्पष्ट विष्ठेपण सक्रिया जाय तथा जैन तर्क॑-साहियमे ओर तदृष्रारा तार्किक दर्दन-साहित्ममें ्रमाणमीमासाका क्या स्थान है, यह मी देखा जाय । आचार्यने जिस इष्टिको ले कर प्रमाणमीमासाका प्रणयन किया है और उस श्रमाण, प्रमाता, प्रमेय आदि जिन तर्का निरूपण क्या है उस्र दृष्टि भीर उन त्क हार्दका स्पष्टीकरण करना यही उस प्रप आम्यतर॒ खरूपका वर्णन करना है । इसे वासे यहां नीचे लिखि चार्‌ मुख्य मु्दों पर तुढनात्मक दृष्टे विचार किया जाता दै ~ (१) जैन दिका खूप, (२) जैन इषिकी अपरिवर्तिष्युता, (३) प्रमाण-दाक्तिकी मर्यादा, (४) प्रमेय प्रदेशकां विस्तार । (१) जैन दृष्टिका खरुप सारतीय दर्शन मुदयतया दो विभागोम॑ विभाजित हो जाते हैं जिनमें ठतो है बास्तवगादी और कुछ हं अवास्तगगरदी | जो स्थूढ र्थाद, लोकि प्रमाणगम्य जगतको मी वेसा ही वास्तविक मानते है जेता सूर्म येकोत्त प्रमाणगम्य जगतको - अर्थात्‌ जिनके मतानुसार व्यावहारिक नीर पारमाथिक समे कोद भेद नही, सय स एक कोटिका है, चाहे मात्रा -यृनाधिकः हो - अर्यात्‌ जिनके मतानुसार भान चाहे न्यूनाधिक ओर स्प्ट-असषट दो पर प्रमाण मात्रमें मासित होने वाले सभी ख़रूप वास्तविक हैं, तथा जिनके मताजुसार वास्तविक रूप भी वाणीप्रकाश्य हो सकते हैं, -वे दर्शन बासवयादी हैं । दृद विधिरु, इदम््यगादी या पएवग्रदी मी य




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