जैन शासन | Jain Shaasan

Jain Shaasan by सुमेरुचंद्र दिवाकर - Sumeru Chandra Diwakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११ भी कहना संगत है कि पवित्र अध्यात्मवादके वातावरणमें सुरक्षित एवं संवर्घित विज्ञानका यदि विकास हो, तो मानव-जगत्‌में लोकात्तर शान्ति, समृद्धि तथा तेजका उदय होगा । जड़ पद।थके गर्भ॑मे अनंत चमत्कारों- को प्रदर्शित करने वाली अनन्त शक्तियाँ विद्यमान हैं, जिन्हें समझने तथा विकसित करनेमें अनंत-मनुष्य-भव व्यतीत हो सकते हैं, रिन्ठु प्राप्त हुआ है एक दुलम नरजन्म । उसका वास्तविक और कट्याणकारी उपयोग इसमें है कि आत्मा पर-पदाथके प्रपंचमं फस अपने अमूल्य क्षणोका अपव्यय न करे, कित्तु अपनी सामथ्य भर प्रयत्न करे. जिससे यह्‌ आत्मा विभाव या विक्रतिका दानेः-रानेः परित्यागकर स्वभावकरे समीप आवे । जिस जन्म, जरा, मुत्युकरी सुसीवतमें यह जगत्‌ ग्रसित है, उससे चकर अमर जीवन ओर अव्यन्त सुखको उपछन्धि करना सबसे बड़ा चमत्कार दं । यह महाविश्चान (५६१५९ 0 ५८९1६८८) ह । भौतिक विज्ञान समुद्रके खारे पानी समान दहे। उसे जितना-जितना पिआगे उतनी- उतनी प्यास बढ़ेगी । इसी प्र कर विपय भागोंकी जितनी-जितनी आरा- धना आर उपभोग हागा, उतनी अद्यान्ति ओर खालसा तथा तृष्णाकी अभिव्रद्धि होगी । एक अआकाक्षके पूण हाने पर अनेक लटसार्मका उदय हा जाता हैं, जो अपनी पूर्ति होने तक चित्तकों भाकुलित बनाता हं। आऊुलता तथा मुसीबत पूण जांवनकी देखकर लोग कभी कभी सोचते हैं, यह आफत कहांखे भा गई ? अज्ञानवद जीव अन्योंका दोष देता है, किन्तु विवेकी प्राणी शान्त भावसे विचारने पर इसका उत्तरदायी अपनेको मानता है ओर निश्चय करता हे कि अपनी भूलके कारण ही मेँ भिपक्ति सिन्धुम दबा हँ । दौकूतरामजीका कथन कितना तव्य है- “अपनी सुधि भूलि आप, आप दुःख उपायो। ज्यों शुक नभ चार बिसरि नलिनी र्टकयो ॥




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