अर्थविज्ञान और व्याकरण दर्शन | Arth Vigyan Aur Vyakaran Darshan

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Arth Vigyan Aur Vyakaran Darshan  by कपिलदेव द्विवेदी - Kapildev Dwivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १° ) प्रकृति-प्रत्यय के विभाजन कोकरते हुए मी सन्धि सिखाता रै, विग्रह में भी सन्घि को प्रकार बताता हे, इन्द्र (विरष, विवाद) मै भी समाशशर (एकत्व, पकता) सिखाता है ग्यपेक्ाभाव (पारस्परिक-सइयोग) समास के साथ एकार्थीमाव स्सास (एकलचयता,एक- उद्दश्यता) सिखाता है । श्राकृति के साथ ही द्रव्य को पदाथ मानना सिखाता है, भौतिक वाद के साथ ही श्रात्मवाद श्रीर ब्रह्मवाद की शिक्षा देता है, जाति श्रौर व्यक्ति दोनों को ही प्दायं मानना सिखाता है । न जाति की उपेक्ता की जा सकती है श्रौर न व्यक्ति की । जाति की सिद्धि द्वारा वैयाकरण जिस लघ्च्य पर पहुँचते हैं, वह है कि व्यक्ति जाति का झंगे है, जाति नित्य है श्रोर व्यक्ति श्रनित्य, जाति सत्य है श्रौर व्यक्ति झसत्य । व्यक्ति जाति का अंग है, श्रंग अंगी के लिए है, व्यक्ति जाति के लिए है, व्यक्ति सर्माष्ट के लिए है, व्यक्ति समाज का एक श्रंग है, वह समाज की सेवा के लिए है, व्यक्ति राष्ट्र का एक श्रंग है, श्रतः राष्ट्र की सेवा उसका कत्तव्य है | वैयाकरण इतने से सन्तुष्ट नहीं होते हैं, वे पदवाद पदस्फॉट को भी श्रटिपूण सममते हैं, वे जातिवाद को भी प्रथक करके शुद्ध नहीं खमते ह, षे वाक्यस्फोट की सिद्धि करके यह सिद्ध करते हैं कि जातिमेद से, राष्ट्र मेद से, समाजमेद से सैकड़ों श्रनथ होते हैं । जिस प्रकार ब्यक्ति जाति का एक झंग है उसी प्रकार जाति, राष्ट्र श्रौर समाज वाक्य के एक श्रंग हैं, विश्व के एक श्रंग हैं । उन्हें विश्व के दित के लिए श्रापना श्रस्तित्व रखना चाहिए, विश्व-दित में ही श्रपना हित निहित समना चाहिए । विश्व-शान्ति, विश्व-अन्घत्व, विश्व-घर्म, विश्व-संस्कृति एवं विश्व को ही अ्रस्वणड झोर निरवयव तथा श्रनिर्वचनीय शब्द-ब्रह्मका एकमात्र प्रतिनिधि समफना चाहिए | वैयाकरणों ने एक इस सत्य का निर्वाद किया है जिसको भगवान्‌ कृष्ण ने कहा है कि न बुद्धिभेद॑ जनयेद्शानां कर्मसड्गिनामू” * कर्मयोगियों में बंद्धिमेद उत्पन्न न करे । श्रतएव वैयाकरण शानियों के लिए. प्रतिभा की पाप्ति उदेश्य बरताति र तथा कर्मयोगियो के लिए किया, कर्मणयता, कर्मठता एषं निष्काममाव से कर्म करने की शिक्षा देते हैं | पतज्ञ;ल एवं भतू दरि ने उक्तं प्रकार से विमेदोंमेश्रमेद और श्रमैकताश्रों में एकता को समाया है। यदि सारे वेद, सारे दशन, समस्त व्याकरण, समस्त शान, विज्ञान, श्रन्वेषश, श्नुसंघान श्रौर सर्वतोमुखी विकास होने पर भी विश्व में शान्ति, सुख, शान; एकता, प्रेस, श्रददिसा श्रौर सत्य की सिद्धि नहीं होती है तो इसका सारा कलंक वेद, दशन, शान, विज्ञान, अनुसंधान श्रौर तथाकथित सब तोमुखी विकास पर है श्रीर मुख्य रूप से उनके झनुयायियों पर है । यद शब्दब्रह्म श्रौर श्रर्थन्र्म दोनों का अनादर श्रौर श्रपमान है । शम्दतत्त् को रचा के लिए श्रथतस्व ( सब्टि ) है श्रौर श्र्थतस्व की रखा के लिए १. सत्यासत्यो तु यौ भावों प्रतिभाव॑ ब्यवस्थिती । सस्यं यत्त्र खा जातिरस्स्या म्यक्तयः स्मृताः ॥ ( बाक्य० ३, ष्ठ २८) २, गीता : ३, २६,




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