शिक्षण सिद्धान्त की रूप रेखा | Shikshan Sansthan Ki Roop Rekha

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Shikshan Siddhant Ki Rooprekha by डॉ. सरयू प्रसाद चौबे - Dr. Saryu Prasad Choubey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४] ˆ रि्तण-मिद्धान्त कौ रूप-रेखा ६ १ दि ह बिना शिक्षा के सम्भव नहीं । कुछ व्यक्ति मुखं हो जाति हैः क्योंकि उन्हें मुख बनाया जाता है । उनकी शिक्षा की व्यवस्था 'नहीं हो पाती, इसलिए संक्रमित गुण रखते हुये भी वे पोछे रह जाते है। प्रजातन्त्र राज्य में व्यक्ति की «ऐसी स्थिति 'झपेक्षित नहीं । इसमें आगे बढ़ने के लिये प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर देने का प्रयत्न किया जाता है । स्पष्ट है कि शिक्षा का एक सामाजिक उद्देश्य है । इसका व्यक्तिगत उद्देश्य नहीं होता । समाज के विभिन्न व्यक्तियों की अआवश्यकतालुसार विकास की व्यवस्था करना शिक्षा का प्रधान कत्त व्य है । २३--शिशा-उद श्य में समाज-गति के अनुसार परिवर्तन:-- व्यक्ति तथा समाज की आवश्यकता परिस्थिति शनुसार बदला कसती है, क्योकि संसार परिवतनशील है। अत. शक्ता व समाज एक रन्ता का कोई शाश्वत उदेश्य नि वो निर्भर रित नहीं किया जा सकता । इसमें 'दूसरे पर › नये देश-काल के अनुसार परिवर्तन राता ही रहता है। स्पष्ट है कि इसीलिये किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था के झध्ययन से वहाँ की सभ्यता का अनुमान लगाया जा सकता है । किसी देश की शिक्षा व्यवस्थ। कभी गलत नही हुआ करती । वस्तुतः उस देश की सामाजिक अवस्था ही वैसौ होती है। समाज की जैसी माँग होती है उसी के श्रनुसार शिक्षा का आयोजन रहता है । यदि शिक्षा व्यवस्था के बदलने को आवाज उठाई गई तो इसका अर्थ यह है कि सामाजिक अवस्था भी बदल रही है । अतः शिक्षा का रूप तब तक नहीं ध्दला जा सक्ता जब तक देश की सामाजिक स्थिति में स्वयं कु परिवतेन न श्रा गया हो । इस प्रकार शिक्षा ओर समाज भारत में शिक्षा का दृष्टिकोण ।




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