चाँद बोला | Chand Bola

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श्री कृष्णदास जी - Shree Krishndas Jee

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श्री दिव्जेन्द्रनाथ मिश्र - Shri Divjendranath Mishr

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चाँद बोला श्ट गिरीश चौथे दिन नहीं रा सका । झाया पूरा एक मास बिताकर श्ौर इस बार जब उस खंडहर में महादेवी उसके सामने श्राकर खड़ी हुई तो काँप रही थी थर-थर । शरीर नहीं उसका दिल भी काँप रहा था. आर आत्मा भी कॉप रही थी श्रौर कॉपती वाणी में ही बोली वहू छलछलाये नयनों से गिरीश को श्रपलक निहारती - कहाँ चले गये थे तुम मुझे क़साइयों के बीच छोड़कर ? पहाड़ जैसे ये दिन मैंने कैसे काटे है तुम नहीं जान पान्नोगे । कैसी विधा मैंने सही है तुम कल्पना नहीं कर सकोगे । मुझसे प्रतीक्षा करने को कह गये थे-रोज़ प्रतीक्षा करती रही तुम्हारी राह निहा- रती रही रोज़ कलेजे में दुख-दर्द छिपाये पर तुम न श्राये कहो तो इतनी पीड़ा मुझे क्यों दी तुमने ? कौन अपराध हो गया जिसकी यह सजा मुे दी है ? तुम्हारे सिवाय श्रब इस दुनिया में मेरा श्रौर कोई नहीं है - यह जानते हो तो भी मु इतने दिनों बिसारे रहे यह तुमने कया किया ? इतने बेदर्द क्‍यों हो गये मेरे ऊपर ? गिरीद एक दाब्द न बोला । अचल हो कर खड़ा रहा श्ौर श्रपलक ताकता रहा महादेवी के काँपते श्रोठों को और जल बरसाती श्राँखों को श्र मुंह से एक शब्द न बोला । वह तो महादेवी ने उसकी बाँह पकड़ कर ग्राँसू बहाते कहा- बेठ जाओ । जाने कितनी दूर से पैदल चल कर झाये हो बहुत थक गये होगे बेठ जाओ दया करके । तो गिरीद बेठ गया टूटी इंटों के चबुतरे पर । महादेवी झाज उसके पास न बेठी । श्राज वह नीचे ज़मीन पर बठी गिरीदा के चरणों के पास ॥ घड़ी भरूदोनों चुप रहे । फिर महादेवी ने सिर डाले कहा- इस एक में यहाँ जाने क्या-क्या हो गया 1




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