प्रायश्चित | Prayashchit
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
112
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ १३ |
साविव्री-शान्तदहो बेटा ! तुम दोष की परिभाषा में नहीं
आते । तुम मोह के कारण भी नहीं जयंत । मोह
तो प्रकृति मेँ सहजात है! वह बल भी है और
बलहीनता भी । जव बह अपने उचित स्थल पर नहीं
रहता वह दुर्बलता वन जाता दै ।
जयंत-यद्ट सव दार्शनिकता दै मोँ ! वास्तविकता से दूर ले -
जा रही हो ¦ मैं इस दानवी कृत्य की मूल प्रेरणा का
केन्द्र बना हूँ--पिताजी से पूर्व में श्पने को मिटा
दूँ गा, मां ! और मैं कददता हूँ--तुम भी धधक उठो,
धधक उठो । मेरा प्या रा भाई भोज मुझे चुला रहा है ।
वह, वह माँ, देखो यह महा साया का मंदिर । महा **
मा''''या? यहीं इस सर्वभक्तिणी माँ के लिए मैं
स्वेच्छा से अपने शरीर का रक्त तपंण करूगा--
जाता है तुम सुभे रोकोगी-रोकोगौ--
सावित्री--[ हाथ,पकड़ के जयन्त को रोकती हुई ] जयंत | [ गला
रुघ जाता है ] तुम्ही मेरे भोज हो-उठुम भी स्त्यु से
यों भयभीत हो सुभे छो जाना चाहते हो ! क्या
सुभः बद्धा को तुम विवश करके ट्यु से हराना चाहते
हो--रुको ! मैंने-देखो सेरे हृदय का बाँध टूटना
चाहता है--तुम उसे ठोकर से तोड़ना चाहते हो |
क्या तुम यहाँ एक साथ कई चितायें
[ लयंत हाथ छुड़ा कर मन्दिर की आर भागता है
“भोज भाड़, झाया. ! में अत्तिकार करू गा । प्रतिकारः” ]
साचित्री--यह प्रतिकार रोको, जयंत । झरे प्रकृति के सादृत्व
को क्यों पिशाचों को जन्भ देने वाला वना देना
--चाहते हो ! रुको रको जयंत--स्त्री के पीड़ित मावृत्व
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