प्रायश्चित | Prayashchit

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Prayashchit by डॉ. सत्येन्द्र - Dr. Satyendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १३ | साविव्री-शान्तदहो बेटा ! तुम दोष की परिभाषा में नहीं आते । तुम मोह के कारण भी नहीं जयंत । मोह तो प्रकृति मेँ सहजात है! वह बल भी है और बलहीनता भी । जव बह अपने उचित स्थल पर नहीं रहता वह दुर्बलता वन जाता दै । जयंत-यद्ट सव दार्शनिकता दै मोँ ! वास्तविकता से दूर ले - जा रही हो ¦ मैं इस दानवी कृत्य की मूल प्रेरणा का केन्द्र बना हूँ--पिताजी से पूर्व में श्पने को मिटा दूँ गा, मां ! और मैं कददता हूँ--तुम भी धधक उठो, धधक उठो । मेरा प्या रा भाई भोज मुझे चुला रहा है । वह, वह माँ, देखो यह महा साया का मंदिर । महा ** मा''''या? यहीं इस सर्वभक्तिणी माँ के लिए मैं स्वेच्छा से अपने शरीर का रक्त तपंण करूगा-- जाता है तुम सुभे रोकोगी-रोकोगौ-- सावित्री--[ हाथ,पकड़ के जयन्त को रोकती हुई ] जयंत | [ गला रुघ जाता है ] तुम्ही मेरे भोज हो-उठुम भी स्त्यु से यों भयभीत हो सुभे छो जाना चाहते हो ! क्या सुभः बद्धा को तुम विवश करके ट्यु से हराना चाहते हो--रुको ! मैंने-देखो सेरे हृदय का बाँध टूटना चाहता है--तुम उसे ठोकर से तोड़ना चाहते हो | क्या तुम यहाँ एक साथ कई चितायें [ लयंत हाथ छुड़ा कर मन्दिर की आर भागता है “भोज भाड़, झाया. ! में अत्तिकार करू गा । प्रतिकारः” ] साचित्री--यह प्रतिकार रोको, जयंत । झरे प्रकृति के सादृत्व को क्यों पिशाचों को जन्भ देने वाला वना देना --चाहते हो ! रुको रको जयंत--स्त्री के पीड़ित मावृत्व




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