साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध | Sahityakar Ki Astha Tatha Anya Nibandh

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Sahityakar Ki Astha Tatha Anya Nibandh by महादेवी - Mahadevi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जिन यूगों में हमारी को स्वप्न-ूप्टि से आवार मिला है और स्वप्न-टृप्टि को म्रयाथेनसृष्टि से सजीवता, उन्ही युगों में हमारा स॒जनात्मक विकास सम्मव हा सका हैं । ध्वसात्मक अघधकार के यगो से था तो वायवी और निप्य्ाण भाव्य का महायून्य हमारी दृष्टि को दिग्श्रांत करता रहा हें या विपस भर खण्डित ययाथ के नीच गत तथा ऊँचे टीले हमारे परो को बघिते रहे है” । हि 'लीवन में वह यथा जिसके पास आदर्थ का स्पदन नहीं केवल व है और आदर्य जिसके पास यथा का घरीर नहीं प्रेतमात्र है।' कं सच्चा कलाकार व्यावसायिक कम पर सवेठ्ननील अधिक होता है, अतः दृष्टि यथार्थ के सम्बन्ध से सतुलित भीर आदर्च के सम्बन्ध में व्यापक रह केंर ही अपन लक्ष्य तक पहुंचती हूँ । इस प्रकार यथाथे-आदर्ण के सध्म ऐतिहासिक विवेचन भीर कलात्मक विच्लेपण के पब्चात्‌ दोनो की जिस स्थिति का उन्होंने आकलन आर उद्भावन किया हैं, वह ट्विन्दी साहित्य के इतिहास में नितान्त नवीन होने के साथ सारगर्भित और साहित्य-सजन के लिए उपादेय भी है। साहित्य की सप्ाणता गौर सचरण के लिए इन दोनों वुत्तियों का सतुलन अनिवार्य है। “सामयिक समस्या में प्रगतिवाद के आन्दोलन द्वारा उत्पन्न साहित्य-समस्या पर व्यापक रूप से विचार करते हुए साहित्य में विज्ञान, मनोविज्ञान, एवं वीद्धिक विकल्पों की स्थितियों और साहित्य में उनके उपयोग की विधियों का विवेचन किया गया है। पूरे निवन्व के अध्ययन से प्रमाणित हो जाता है कि प्रगति से, चाहे चह मार्क्स से प्रभावित हो, चाहे गाँधी से और चाहे फ़रायड से, मह्ाटेवी जी का कोई विरोध नही, किन्तु प्रगति का वास्तविक रूप वे साहित्य की उस विकासणील प्रवृत्ति दी स्वीकार करती है, जो जीवन के स्वाभाविक विकास के साथ सृजन को. करती चलती है। प्रगति के लिए जो मार्क्स के वैज्ञानिक मौतिकवाद से प्रभावित ही नही. काव्य मे उसका अक्षरण. अनवाद भी चाहता है। अत. साहित्य की उत्क़ृप्टता से अधिक महत्व यैद्धान्तिक प्रचार को मिल जाना स्वाभाविक है। वह राजनीतिक दलों के समान साहित्यचरों का विभाजन कर अपने पक्ष में वहुमत गौर दूसरे पक्ष मे अल्पमत चाहता है। ऐसी प्रगति के उपासकों से उनका विरोव न होना आच्चर्य का ही कारण हो सकता था। किसी दल की सकीर्णता में वद्ध प्रगति की भावना साहित्य को सार्वजनिक कल्याण के पथ पर अग्रसर नहीं कर सकती | उसे केवल १७ दी न थम




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