धर्म परीक्षा | Dharm Pariksha

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Dharm Pariksha by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१३ मनोवेग सन्तुष्टावित्त हो यनिरयोकी सभाम वैठता हुवा ॥७० ` इति श्री अमितगत्याचाय्यक्तत धर्मपरीक्षा नामक संसत भथकी बालाववोधिनी भाषाटीकार्मे प्रथमपरिच्छेद पृण भया ॥ ২11 अथानन्तर उस समामे किसी एक भव्य पुरूपने अवापि ज्ञानी मानिमहाराजकी नमस्कार करके विनय सहित पूछा कि ॥ १ ॥ हे भगवन्‌ ! इस असार संसारमें फिरते हुये जौवोंको सुख तो कितना है ओर दुःख कितना है सो कृपा करके सुझे कहिये ॥ २॥ यह परश्च सुनकर मुनिमहाराजने कहा किदे भद्र! संसारके छख दुःखका विभागकर कना वडा काठिन हैः तथापि एक दृष्टान्तके द्वारा किंचिन्मात्र कहा जाता ই, क्योकि टृष्ान्तके লিনা अल्पङ्ग जीवोकी सम- क्षमे नरं आता सो ध्यान देकर घुन ॥ ३-४ ॥ अनेक जीवोकर भरी हुई इस ससाररूपी अटवीकी समान एक महा वनम दैवयोगसे कोई पथिक ( रस्तामीर) यवे करता हुवा ॥ ५॥ सो उस वनम यमराजकी समान सडको ऊंची क्रिये हुये कोधायमाने बहुत वदे भयङ्कर हाथीको अपने सन्धुख आता हुवा देखा ॥ ६ ॥ उस्र हाथीने उस भयभीत पथिकको भीखोके मागंसे अपने आगे कर शिया सो उसके आगे २ भागता हुवा वह पथिक पहिले नहिं देखा ऐसे अन्धङकपे गिर पडा ७॥ निसथकार दुर्गम नरकमें नारकी धर्मका अवलम्बन करके रहता है, उसीप्रकार वह भयभीत पथिक उस दूपे गिरता २ सरस्तंव कहिये सरक जड़को अथवा वड़की जडकों पकड़कर लटकता हुव




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