अँधेरे की आँखे | Andhere Ke Ankhe
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
144
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)केवल चुप है। चुप ! बुछ बोलो भी, मैं कहता है, तुम्हें क्या तकलीफ
है ? क्यों छुमते टेलीफोन करवाया था ? लेकिन उसकी चुप्पी मोम की
तरह जमती जा रही है ! गरम मोम जैसे ठडी चमड़ी पर जमने লন ।
पहले थोड़ो तकलोफ होती है, जलन-सी भी, लेकिन बाद में केवल
मोम का चमड़ी पर बिंपके रहने का एहसास ही रह जाता है । लेकित
मोम के जमतै-जमते तक ही मैं विलमिला उठा हूँ । मुझे यातना न दो,
मेरा झाभोश धीरे-घोरे उमगने लगता है | में बात करता हू तो बह
रुसाई सो लगती है । तुम मुभ्छे हमेशा ऐसे ही क्यों सताती हो, मैं याचना
भरे स्वर में कहता हू । मैं उस समय भीस मागते के भन््दाज्ञ में होता
हैं । श्रोर फिर ध्नायास्त ही मेरे मुद्द से निकल जाता है, क्या मैं तुम्हे
प्र्ठा नहीं लगता ? यदि भ्रच्छा नही लगता तो तुम मुझे छोड क्यों नही
देशी? की भौर चत्ती जाम्रो । जैसे भी तुम खुश रह सकती हो । तुम्हे
पैसा चाहिए, वह भी ले जाप्रो ? लेकिन खुदा के लिए मेरे भनन््दर ये
कीर्ते न पाहो ।
बह सुना अनसुना कर देती है !
मैं बिना कुछ कहे ही घर से चल पड़ता हूँ, वैसे ही सब कुछ उलभा
हुम्रा छोड़कर । कुछ भी मुलभता नहीं | तब में एक पिगरेद खरीदता
हैं । उसे थोश पीता हूँ भौर फंक देता हूँ । फिर और खरीदता हूँ, भीर
उप भी फेक देता हूँ । फिर थौर खरीदना हूँ, भौर खरीदता हूँ, जिससे
मेरे सब पैसे खर्चे हो जाए, यथपि में तिगरेट नहीं पीता । फिर मुझे याद
ग्राता है कि इसरो मेरी वीमारी बढ़ सकती है । पर इससे भी मुझ पर
कोई प्रमर नहीं होता । मैं चाहने लगता हूँ कि मेरी बीमारी एकदम बढ़
जाए, और बढ़ जाए, और ऐसे ही मैं ज्ञाया होता जाऊं!
छ
चमड़ी पर जमता मोम १५
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