अँधेरे की आँखे | Andhere Ke Ankhe

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Andhere Ke Ankhe by श्रवण कुमार - Shravan kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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केवल चुप है। चुप ! बुछ बोलो भी, मैं कहता है, तुम्हें क्या तकलीफ है ? क्यों छुमते टेलीफोन करवाया था ? लेकिन उसकी चुप्पी मोम की तरह जमती जा रही है ! गरम मोम जैसे ठडी चमड़ी पर जमने লন । पहले थोड़ो तकलोफ होती है, जलन-सी भी, लेकिन बाद में केवल मोम का चमड़ी पर बिंपके रहने का एहसास ही रह जाता है । लेकित मोम के जमतै-जमते तक ही मैं विलमिला उठा हूँ । मुझे यातना न दो, मेरा झाभोश धीरे-घोरे उमगने लगता है | में बात करता हू तो बह रुसाई सो लगती है । तुम मुभ्छे हमेशा ऐसे ही क्यों सताती हो, मैं याचना भरे स्वर में कहता हू । मैं उस समय भीस मागते के भन्‍्दाज्ञ में होता हैं । श्रोर फिर ध्नायास्त ही मेरे मुद्द से निकल जाता है, क्या मैं तुम्हे प्र्ठा नहीं लगता ? यदि भ्रच्छा नही लगता तो तुम मुझे छोड क्‍यों नही देशी? की भौर चत्ती जाम्रो । जैसे भी तुम खुश रह सकती हो । तुम्हे पैसा चाहिए, वह भी ले जाप्रो ? लेकिन खुदा के लिए मेरे भनन्‍्दर ये कीर्ते न पाहो । बह सुना अनसुना कर देती है ! मैं बिना कुछ कहे ही घर से चल पड़ता हूँ, वैसे ही सब कुछ उलभा हुम्रा छोड़कर । कुछ भी मुलभता नहीं | तब में एक पिगरेद खरीदता हैं । उसे थोश पीता हूँ भौर फंक देता हूँ । फिर और खरीदता हूँ, भीर उप भी फेक देता हूँ । फिर थौर खरीदना हूँ, भौर खरीदता हूँ, जिससे मेरे सब पैसे खर्चे हो जाए, यथपि में तिगरेट नहीं पीता । फिर मुझे याद ग्राता है कि इसरो मेरी वीमारी बढ़ सकती है । पर इससे भी मुझ पर कोई प्रमर नहीं होता । मैं चाहने लगता हूँ कि मेरी बीमारी एकदम बढ़ जाए, और बढ़ जाए, और ऐसे ही मैं ज्ञाया होता जाऊं! छ चमड़ी पर जमता मोम १५




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