महापुराण भाग - १ | Mahapuran Bhag-1

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Mahapuran Bhag-1 by पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्ताच्ना १५९ पुस्तक आदिपुराणजीका, भट्टारकराजेद्रकोतिजीको दिया, लखनऊमे ठाक्रदासकी पतोह ललित- प्रसादको बेटी ने! मिती माघवदी” * “**'“'सं० १६०४ के साल में ? इस लेखसे लेखनकाल स्पष्ट नहीं होता, इसका सांकेतिक नाम 'शअ्र' हे । ४-१” प्रति यह प्रति मारवाड़ी मन्दिर शक्कर बाजार इन्दोरके पं० खेसचन्द्र शास्त्रीके सौजन्यसे प्राप्त हुई ই । कहीं कहीं पाइवंस चारों ओर उपयोगी टिप्पण दिये गये हें । पत्र-संख्या ५००, पङडक्ति-संख्या प्रतिपत्र ११ और श्रक्षरसंख्या प्रतिपदक्ति ३५ से ३८ तक हे । अ्रक्षर सुवाच्य है, दह्ा श्रच्छी है, लिखनेका संवत्‌ नहीं हे, श्रादि श्रन्तमे कुष्ठ लेख नहीं ह । प्रथम पत्र जीर्णं होनेके कारण दूसरा लिखकर लगाया गया हं । प्रायः शुद्ध हे। इन्दौरसे प्राप्त होनेके कारण इसका सांकेतिक नाम इ है । ६-सः प्रति यह प्रति पुज्य बाबा १०४५ क्षुल्लक श्री गणेशप्रसादजी वर्णी की सत्कृपासे उनन्‍्हींके सरस्वतीभवनसे प्राप्त हुई हैं। लिखावट अत्यन्त प्राचीन है, पड़ी मात्राएं हे जिससे श्राधनिक वाचकोंको अ्रभ्यास किये बिना बाचनेमं कठिनाई जाती हँ । जगह जगह प्राकरणिक चित्रोंसे सजी हुई है। उत्तरा्धमें चित्र नहीं बनाये जा सके हैं अ्रतः चित्रोंके लिये खाली स्थान छोड़े गये हें । कितने ही चित्र बड़े चुन्दरहं। पत्र संख्या ३६४ हं, दशा श्रच्छी है, आदि अ्रन्तमें कुछ लेख नहीं है । पूज्य वर्णीजी को यह प्रति बनारसमें किती सज्जन द्वारा भेंट की गई थी ऐसा उनके कहनेसे सालस हुझ्ला। सागरसे प्राप्त होनेंके कारण इसका सांकेतिक नाम “स' है । ७-द? पति यह प्रति पन्लालाल जी अग्नवाल दिल्‍लीकी कृपासे प्राप्त हुई। इसमे मूल इलोकोंके साथ ही ललितकीति भट्टारक कृत संस्कृत टीका दी हुई है। पत्र-संख्या ८६८ हे, प्रतिपन्र पंक्तियां १२ और प्रति- पडिकत श्रक्षर-संख्या ४५० से ५९ तक हे । लेखन काल अज्ञात हे। श्रन्त में टीकाकार की प्रशस्ति दी हुई हं जिससे टीका निर्माणका काल विदित होता हे । प्रशस्ति इस प्रकार है- वर्ष सागरनागभोगिकूमिते मागं च मासेऽसिते पक्षे पक्षतिसत्तिथौ रविदिने टीका कृतेयं वय । काष्टासंववरे च माथूरवरे गच्छं गणो पुष्करे देवः श्रीजगदादिकीतिरभवत्‌ स्यातो जितात्मा महान्‌ । तच्छिष्येण च मन्दतान्वितिधिया भट्टारक्त्वं यता शुम्भद ललितादिकिीत्यंभिधया स्यतेन लोकं ध्रुवम्‌ । राजश्रीजिनसनभाषितमहा कान्यस्य भक्त्या मया संशोध्यैव सुपठ्तां बुधजनः क्षान्ति विधायादरात्‌ ।” दिल्लीसे प्राप्त होनेके कारण इसका सकितिक नाम द' हं । ८-2' प्रति यह प्रति श्री पं० भुजबलिजी शास्त्रीके सोजन्य द्वारा मूडबिद्रीस प्राप्त हुई थी । इसमे ताडपन्न पर मल शलोको के नम्बर देकर संस्कृतम रिप्पण दिय गयेहं। प्रकृत प्रन्थमें इलोको के नीचे जो टिप्पण दिये गये हें वे इसी प्रतिसे लिये गये हें। इस टिप्पणमें श्नीमते सकलक्ञानसाम्‌ाज्यपदमीयुष । धर्स- चक्रभुते भन्न तमः संसारभीमुष इस आद्य इलोक के विविध श्रर्थ किये हें जिनमेंसे कुछका उल्लेख हिन्दी अनुवादमें किया गया है । इसकी लिपि कर्णाटक लिपि हं । इस प्रतिका सांकेतिक नाम 'ठ” है । टिप्पण- নি লাজক্কা पता नहीं चलता हे । <~ कः प्रति यहु प्रति भौ टिप्पणकी प्रति हं । इसकी प्राप्ति जन सिद्धास्तभवनश्रारासे हई हं । ताडपत्रपर कर्णाटक लिपिं टिप्पण दिये गये हं । इसमे प्रथम ईलोकका 'ट^ प्रतिके समान विस्तृत टिप्पण नहीं है ।




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