आदर्श जीवन या आचार्य महाराज 1008 श्रीमद विजयवल्लभ सूरि चरित्र | Adarsh Jeevan Ya Acharya Maharaj 1008 Srimad Vijayvallabh Suri Jivan Charitra

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Adarsh Jeevan Ya Acharya Maharaj 1008 Srimad Vijayvallabh Suri Jivan Charitra by कृष्णलाल वर्मा - Krishnalal Varma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आदशे-जीवन पथम खंड । ( सं, १९२७ से सं. १९४४ तक ) बड़ोदेके जानीसेरीका उपाश्रय नरनारियोंसे भराहुआ य महात्माकी नहृद गंभीर वाणीका श्रवण करनेके लिए छोग आगे बैठनेका प्रयत्न करनेमें एक दुरो धकेर रहे ये ¦ इ धकापेलमें छोगोंकी उपंदेशायतक्की बहुत ही थोड़ी वूं पान करनेको मिल रही थीं । ऐसे पमयमें भी एक दीवारके सहारे एक १९ वर्षीय बालक एक्राग्रचित्तते उत्त अमृत वाणीका पान कर रहा था ) उसकी आँखे महात्माके भव्य तेनोदीप मुख मंडकू पर ए्थिर थीं ओर उसके कान अस्खलित भावसे उत्त अमृतको पीकर अपने अन्तस्थहूमें पहुँचा रहे थे ओर वहाँसे अनन्त जीवनके बद्ध कमै मख्करो, उप्त असरतद्वारा दीटाकर, बाहर कैक देनेका यत्न कर रहे थे । व्याख्यान समाप्त हुआ | श्रोता छोग महात्माको वंदना कर, एक एक करके अपने घर चढे गये, मगर वह बालक उद्ची तरह स्थिर बेठा रहा । महात्माने पूछा:-““ बालक क्यों बैंठे हो ! »




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