अर्थ विज्ञान और व्याकरण दर्शन | Arth Vigyan Aur Vyakaran Darshan

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Arth Vigyan Aur Vyakaran Darshan by कपिलदेव द्विवेदी - Kapildev Dwivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ६ ) कौमुदी श्रादि; नगिशभद्वकृत वैयाकरणएसिद्धान्तमंचूषराः, लघुम॑जूषा; शब्देन्दुशेखर, परिभा- पेन्दुशेखर, महाभाष्य की उद्योत टीका तथा स्फोटवाद आदि, कौण्डभट्ट विरचित वैयाकरण- भूषण, मण्डन मिश्र कृत स्फोटसिद्धि, वामन जयादित्य कृत काशिका आदि সখা में अरथविज्ञान विषय के अ्रंग और उपांगों का विशेष विस्तार से विचार किया गया है | दाशंनिक विद्वानों ने जिन श्रमर ऋृतियों में अ्र्थविश्ञान का विवेचन किया है, तथा जिन अन्थरक्षों का विशेष सदुपयोग किया गया है, उनके नाम आदि सहांयक ग्रन्थों की 'सूची में विशेषरूप से दिये गए हैं । वैयाकरणों का दष्टिकोए--इस निब्रन्ध में वैयाकरणों के इस सिद्धांत को समुचित और ग्राह्म समझा है कि सर्ववेदपारिषदं हीद शास्त्रम-तत्र नेकः पन्‍्या; शक्य आस्थातुम” (महामाष्य २, १, ५८) व्याकरण सारे वेदो, समस्त दशनों आदि का पथप्रदशंक है, अतः किसी एक मार्ग-विशेष (दर्शन-विशेष, धर्म-विशेष, सम्प्रदाय-विशेष) का आश्रय नहीं लिया जा' सकता है । वैयाकरणों को अ्रतएव चतुमंखी उत्तरदायित्व के मध्य में अपना उत्तरदायित्व सुचारुरूप से निमाना होता है। वैयाकरणों ने इस समस्त उत्तरदायित्व को एक संक्षिप्त नियम में पूरा कर दिया है। वैयाकरणों का दृढ़ मन्तव्य हू कि सारे सुखखों का मूल, समस्त विवादों, विग्रहों और छुखों का परिहार एक समन्वयवाद है। प्रत्येक शब्द में, प्रत्येक अण़ु और परमाणु .में स्फोणट और ध्वनि का समन्वय है, प्रकृति ओर प्रत्यय का समन्वय है । इसी समन्वय के श्राधार पर प्रत्येक अ्थ, प्रत्येक सृष्टि का कार्य चलता है । जहाँ पर दोनों में से एक की उपेक्षा की जाती है, वहीं से चादविवाद, विरोध, संधर्ष प्रारम्भ हो जाता है। श्रतः वैयाकरण कहते ई कि :- न केवला प्रकृतिः प्रयोक्तव्या, नापि केवलः प्रत्ययः | न केवल प्रकृति का प्रयोग करना चाहिए श्रौर न केवल प्रत्यय का, न केवल प्रकृति- वादका प्रयोग करना चाहिए श्रौरन वल प्रत्ययवाद का, न केवल भौतिकवाद का प्रचार और व्यवहार करना चाहिए और न केवल श्रध्यात्मवाद श्रौर विज्ञानवाद का। न केवल च्ञानन्मार्ग का ही प्रयोग करना चाहिए ओर न केवल कर्ममार्ग का | दोनों का समन्वय करने दी प्रत्येक वाद, प्रवयेक सिद्धान्त श्रौर प्रत्येक मन्तव्य काप्रयोग करना चाहिए. जैसा कि सरल ओर सुन्दर शब्दों में इसके समन्वय कां प्रकार भगवान्‌ कृष्ण ने गीता में प्रतिपादित्त जिया है।* - व्याकरण ओर वैयाकरणों को जो सन्‍्मान सब ओरे से प्राप्त हुआ है, उसका कारण उनकी निलेंपता, निष्पक्षता श्रीर सत्वत्ा है। इस सत्यता के कारण ही व्याकरण नीर दोते हुए भी सब से अधिक सरस है, अप्रिय होते हुए भी सर्वप्रिय है, निवार्य होते हुए भी प्रनिवार्य है, व्याकरण होते हुए. भी दर्शन एवं साहित्य है, লি इोते हुए भी स्फोट है, श्रभिषा होते हुए मी व्यंजना है, वाच्यार्थ होते हुए भी ब्यंग्यार्य-प्रघान है, शान दोते हुए, भी ज्षेय है, साधन होते हुए भी साध्य है, अठिद्व द्ोते हुए भी छिद्ध है। व्याकरण ही » दइखों गीता अध्याय २ से ५. ञ्‌




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