संजीवनी विद्या | Sanjivani Vidhya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4.72 MB
कुल पष्ठ :
126
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)थ् तात्काछिक तात्कालिक पायश्रित'
रख इस्ती यथा दध्चि सर्पिस्तेलन्तिले यथा ।
सर्वेज्ञाचुगतं देहे झुक संस्पदने तथां ॥
तत् स्रीयुरुषसंयोग चेपासंकट्पपीडनात् ।
झुक प्रच्युते स्थानात् जलमादौत्पटादिव ॥
अथाँवद जिस श्रकार ऊखमें रस, दह्दीमें घी और तिलॉंमें ते रहता है,
उसी प्रकार सारे शरीर और स्वचामें वीर्य व्याप्त रहता दै । जिस प्रकार गीले
कपड़ेको निचोड़नेसे उसमेंसे जल निच्चुडुकर निकल जाता है, उसी प्रकार
खी-पुरुप-सम्मोग, काम-चेा, काम-चिकार और मर्दनके द्वारा शरीरमेंसे वीये
निच्चुदुकर निकल जाता है।
तात्प्यं यह कि वीर्य सारे धारीरमें व्याप्त रहता है, और कोल्हूमें ढाले
हुए ऊखकी तरह सारा शरीर पेरा जाता है, जिससे उसमेंका वीयें निकछठ
जाता है और शरीर निवीर्य हो जाता है।
यावद्धिन्डुः स्थियो देहे तावत्काठभयं छुतः 1
--योगतत्वोपनिपद्।
अधाँद जब तक वी स्थिर रहता है, तव तक मनुष्यकों काठका भी भय
नहीं रहता ।
, मंतिस्रीसंयोगाच्च रक्षेदात्मानमात्मचान् 1
९. बहुत अधिक ख्री-प्रसंग करनेसे अनेक प्रकारके शूल, सखी, ज्वर, दमा,
वातरोग, अशक्तता, पाडु, क्षय भादि रोग उत्पन्न दोते हैं। इसलिए बहुत
अधिक ख्री-प्रसंगसे अपनी रक्षा करनी चाहिए ।
दूर-कास-ज्वर-दचास-काइये-पाण्डवामय-झयाः ।
अतिव्यवायाज्ञायन्ते रोगाश्वाक्षेपकादयः ॥।
-ुश्रुत, चिकित्सास्वान ।
प्रो माइकेठ लेवी कहते हैं--' खी-प्रसंगका जो विधातक परिणाम
होता है, चद्द जब सब लोगोंको ज्ञात हो गया है। परन्तु अति-प्रसंगके
कारण धीरे धीरे बढ़ता रहनेवाछा जो दुष्परिणाम होता है, सारम्भस खरेण
मजुष्योंका उसकी ओर ध्यान नहीं जाता । जौर लोगोंफी तो वात ही जाने
दीजिए, वैद्य और ढाक्टर छोग भी उस दुप्परिणामकों किसी दूसरे रोगका
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